आज एक ऐसे रचनाकार की रचना शेयर कर रहा हूँ, जिनकी कोई रचना शायद मैंने पहले शेयर नहीं की है| श्री राजेन्द्र राजन एक श्रेष्ठ रचनाकार हैं जिन्होंने अनेक श्रेष्ठ कविताएं, गीत और कहानियाँ लिखी हैं|
आज मैं उनकी एक सुंदर रचना शेयर कर रहा हूँ-
मेरे मन में नफ़रत और गुस्से की आग, कुंठाओं के किस्से, और ईर्ष्या का नंगा नाच है|
मेरे मन में अंधी महत्वाकांक्षाएं, और दुष्ट कल्पनाएं हैं|
मेरे मन में बहुत से पाप, और भयानक वासना है|
ईश्वर की कृपा से बस यही एक अच्छी बात है, कि यह सब मेरे सामर्थ्य से परे है|
सभी को, महान भारतीय गणतन्त्र दिवस की बधाई देते हुए, मैं स्वर्गीय रामधारी सिंह जी दिनकर की एक रचना शेयर करना चाह रहा हूँ| दिनकर जी को राष्ट्रकवि का दर्जा दिया गया था क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय हुंकार से भरी अनेक रचनाएँ लिखी थीं, लेकिन यह रचना एक सुकोमल भावनाओं से युक्त रचना है, जिसमें व्यक्ति यह प्रश्न करता है कि आखिर वह किस श्रेणी में आता है!
एक ऐसा व्यक्तित्व उनकी इस कविता में उभरता है, जो सीमाहीन है| लीजिए दिनकर जी की इस रचना का आनंद लीजिए-
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं बँधा हूँ, स्वप्न हूँ, लघु वृत हूँ मैं नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता, जो बीन उर में विकल उस शून्य की झंकार हूँ मैं भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखुडीं पर ओस-कण में रंगीले स्वप्न का संसार हूँ मैं मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं रुदन अनमोल धन कवि का, इसी से पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं
न देखे विश्व, पर मुझको घृणा से मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं पुजारिन, धूलि से मुझको उठा ले तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनूं क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ, भीषण क्षुधा का दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं सजग संसार, तू निज को सम्हाले प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बंधा तूफान हूँ, चलना मना है बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं।।