आज एक बार फिर से मैं अपने एक अत्यंत प्रिय कवि रहे स्वर्गीय किशन सरोज जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| किशन जी को अनेक बार सुनने और अनेक बार उनसे मिलने का अवसर मिला, ये मेरा सौभाग्य था, अत्यंत सरल, सौम्य और शालीन व्यक्ति थे|
आज की रचना, में किशन सरोज जी ने जीवन की मृगतृष्णा को बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है-
सैलानी नदिया के संग–संग
हार गये वन चलते–चलते|
फिर आईं पातियां गुलाबों की
फिर नींदें हो गईं पराई,
भूल सही, पर कब तक कौन करे
अपनी ही देह से लड़ाई|
साधा जब जूही ने पुष्प-बान
थम गया पवन चलते–चलते|
राजपुरुष हो या हो वैरागी
सबके मन कोई कस्तूरी,
मदिरालय हो अथवा हो काशी
हर तीरथ-यात्रा मजबूरी|
अपने ही पाँव, गंध अपनी ही,
थक गये हिरन चलते–चलते|
आज के लिए इतना ही
नमस्कार
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आज एक बार फिर से मैंने अपने एक प्रिय कवि स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक गीत शेयर करना चाहा और किया भी, लेकिन मालूम हुआ की मैं कुछ महीने पहले ही उसे शेयर कर चुका था|
लीजिए अब प्रस्तुत कर रहा हूँ उनका यह गीत-
नीम तरू से फूल झरते हैँ तुम्हारा मन नहीं छूते बड़ा आश्चर्य है|
रीझ, सुरभित हरित -वसना घाटियों पर व्यँग्य से हँसते हुए परिपाटियों पर इँद्रधनु सजते- सँवरते हैँ तुम्हारा मन नहीं छूते बड़ा आश्चर्य है|
गहन काली रात बरखा की झड़ी में याद डूबी ,नींद से रूठी घड़ी में दूर वँशी -स्वर उभरते हैँ तुम्हारा मन नहीं छूते बड़ा आश्चर्य है|
वॄक्ष, पर्वत, नदी, बादल, चाँद-तारे दीप, जुगनू , देव–दुर्लभ अश्रु खारे गीत कितने रूप धरते हैँ तुम्हारा मन नहीँ छूते बड़ा आश्चर्य है|
आज एक बार फिर से मैं अपने एक प्रिय कवि स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, जो गीतों के ऐसे सर्जक थे कि उनको बस सुनते ही जाने का मन होता था|
लीजिए प्रस्तुत है आंसुओं की मारक शक्ति से भरा हुआ यह गीत-
नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल ।
छू लिए भीगे कमल- भीगी ॠचाएँ मन हुए गीले- बहीं गीली हवाएँ
बहुत सम्भव है डुबो दे सृष्टि सारी दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल ।
एक बार फिर मैं आज बहुत ही प्यारे और भावुक गीतकार, स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| मुझे यह स्मरण करके अच्छा लगता है कि मुझे कई बार उनसे गले मिलने का अवसर मिला था| बहुत ही सरल हृदय व्यक्ति, सृजनशील रचनाकार थे| आज के इस गीत में भी उन्होंने प्रेयसी की आँखों में आए आंसुओं के बहाने क्या-क्या बातें कह दीं, भावुकता की उड़ान में कहाँ-कहाँ पहुँच गए|
लीजिए प्रस्तुत है स्वर्गीय किशन सरोज जी का यह प्यारा सा गीत- –
नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा- यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल ।
छू लिए भीगे कमल- भीगी ॠचाएँ मन हुए गीले- बहीं गीली हवाएँ|
बहुत सम्भव है डुबो दे सृष्टि सारी, दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल ।
आज मैं एक बार फिर से अपने प्रिय कवियों में से एक रहे, स्वर्गीय किशन सरोज जी का एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ, ये बात मुझे बार-बार बतानी अच्छी लगती है कि मैंने कई बार उनको अपने आयोजनों में बुलाया था और वे बड़े आत्मीय भाव से गले मिलते थे| एक बात और बता दूँ, मैं अपने एक निकट संबंधी की मृत्यु का समाचार पाकर वहाँ जा रहा था| तभी ट्रेन में यात्रा करते समय मुझे किशन जी की मृत्यु का समाचार ज्ञात हुआ, कुमार विश्वास जी के द्वारा लिखा गया पोस्ट पढ़कर| यह पढ़कर मेरी स्थिति ऐसी हो गई कि मुझे लगा कि अगर मैं यहाँ ट्रेन में ही रोने लगा तो लोग क्या कहेंगे|
खैर आप किशन सरोज जी का, गीत कवि की व्यथा से जुड़ा यह भावुक सा गीत पढ़िए-
इस गीत कवि को क्या हुआ, अब गुनगुनाता तक नहीं|
इसने रचे जो गीत जग ने पत्रिकाओं में पढ़े, मुखरित हुए तो भजन जैसे अनगिनत होंठों चढ़े|
होंठों चढ़े, वे मन बिंधे, अब गीत गाता तक नहीं|
अनुराग, राग विराग सौ सौ व्यंग-शर इसने सहे, जब जब हुए गीले नयन तब तब लगाये कहकहे|
वह अट्टहासों का धनी अब मुस्कुराता तक नहीं|
मेलों तमाशों में लिये इसको फिरी आवारगी, कुछ ढूँढती सी दॄष्टि में हर शाम मधुशाला जगी|
प्रसिद्ध गीत कवि स्व. श्री किशन सरोज जी का स्मरण करते हुए उनके कुछ गीत शेयर कर रहा था, वैसे तो किशन जी ने इतने सुंदर गीत लिखे हैं कि लगता है कि उनको शेयर करता हि जाऊं। लेकिन फिलहाल इस क्रम में मैं इस गीत के साथ यह क्रम समाप्त करूंगा।
मुझे याद है कि किशन सरोज जी जब भी मिलते थे एक दोस्त की तरह मिलते थे, इतने सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। वे प्रेम के और विरह के गीतों के सुकुमार बादशाह थे, आज का उनका गीत, जिसे आजकल ‘ब्रेक-अप’ कहा जाता है उसके संबंध में है। लेकिन उस समय यह ‘ब्रेक-अप’ कोई फैशन का हिस्सा नहीं था और इसका कारण समाज के बंधन होते थे। यह उनका एक अलौकिक गीत है, लीजिए आज प्रस्तुत है, फिलहाल इस कड़ी का अंतिम गीत-
छोटी से बड़ी हुईं तरुओं की छायाएं धुंधलाईं सूरज के माथे की रेखाएं मत बांधो‚ आंचल मे फूल चलो लौट चलें वह देखो! कोहरे में चंदन वन डूब गया।
माना सहमी गलियों में न रहा जाएगा सांसों का भारीपन भी न सहा जाएगा किन्तु विवशता यह यदि अपनों की बात चली कांपेंगे आधर और कुछ न कहा जाएगा। वह देखो! मंदिर वाले वट के पेड़ तले जाने किन हाथों से दो मंगल दीप जले और हमारे आगे अंधियारे सागर में अपने ही मन जैसा नील गगन डूब गया।
कौन कर सका बंदी रोशनी निगाहों में कौन रोक पाया है गंध बीच राहों में हर जाती संध्या की अपनी मजबूरी है कौन बांध पाया है इंद्रधनुष बाहों में। सोने से दिन चांदी जैसी हर रात गयी काहे का रोना जो बीती सो बात गयी मत लाओ नैनों में नीर कौन समझेगा एक बूंद पानी में‚ एक वचन डूब गया।
भावुकता के कैसे केश संवारे जाएं? कैसे इन घड़ियों के चित्र उतारे जाएं? लगता है मन की आकुलता का अर्थ यही आगत के आगे हम हाथ पसारे जाएं। दाह छुपाने को अब हर पल गाना होगा हंसने वालों में रह कर मुसकाना होगा घूंघट की ओट किसे होगा संदेह कभी रतनारे नयनों में एक सपन डूब गया।
प्रसिद्ध गीत कवि स्व. श्री किशन सरोज जी का स्मरण करते हुए उनके कुछ गीत शेयर करने के क्रम में आज प्रस्तुत है उनका एक और प्रसिद्ध गीत। किशन सरोज जी प्रेम के और विरह के गीतों के सुकुमार बादशाह थे, किशन सरोज जी का एक ऐसा ही प्रेम-विरह का गीत आज प्रस्तुत है-
कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित, सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना।
धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन, बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन, अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना।
दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया, वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया। थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित, छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना।
लो विसर्जन आज वासंती छुअन का साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन, गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन, उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना।
प्रसिद्ध गीत कवि स्व. श्री किशन सरोज जी का स्मरण करते हुए उनके कुछ गीत शेयर कर रहा हूँ, वैसे तो उनका हर गीत बेमिसाल है, आज एक और गीत शेयर कर रहा हूँ। किशन सरोज जी प्रेम के और विरह के गीतों के सुकुमार बादशाह थे, अक्सर उन्होंने कवि सम्मेलनों में ईमानदार और सृजनशील कवियों की जो स्थिति होती है, हल्की-फुल्की कविताओं के माहौल में उनको क्या कुछ सहना पड़ता है, इस व्यथा को अभिव्यक्ति दी है, किशन सरोज जी का एक ऐसा ही गीत आज प्रस्तुत है-
नागफनी आँचल में बांध सको तो आना धागों बिंधे ग़ुलाब हमारे पास नहीं।
हम तो ठहरे निपट अभागे आधे सोये, आधे जागे, थोड़े सुख के लिये उम्र भर गाते फिरे भीड़ के आगे, कहाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित, इसका सही हिसाब, हमारे पास नहीं।
हमने व्यथा अनमनी बेची, तन की ज्योति कंचनी बेची, कुछ न मिला तो अंधियारों को, मिट्टी मोल चांदनी बेची। गीत रचे जो हमने उन्हें याद रखना तुम रत्नों मढ़ी किताब, हमारे पास नहीं।
झिलमिल करतीं मधुशालाएँ, दिन ढलते ही हमें रिझाएँ, घड़ी-घड़ी हर घूँट-घूँट हम, जी-जी जाएँ, मर-मर जाएँ, पीकर जिसको चित्र तुम्हारा धुंधला जाए, इतनी कड़ी शराब, हमारे पास नहीं।
आखर-आखर दीपक बाले, खोले हमने मन के ताले, तुम बिन हमें न भाए पल भर, अभिनन्दन के शाल-दुशाले, अबके बिछुड़े कहाँ मिलेंगे, ये मत पूछो, कोई अभी जवाब, हमारे पास नहीं।
कुछ दिन पहले ही प्रसिद्ध गीत कवि श्री किशन सरोज जी के निधन की खबर आई थी, मैं बाहर था अतः समय पर उनके बारे में नहीं लिख पाया।
स्व. किशन सरोज जी बहुत ही प्यारे गीतकार थे, एनटीपीसी में सेवा के दौरान हमारे कई आयोजनों में मैंने उनको आमंत्रित किया था, श्री सोम ठाकुर जी के साथ भी उनकी घनिष्ठ मित्रता थी, दोनो एक-दूसरे की सृजनशीलता का बहुत सम्मान करते थे।
मुझे विंध्यनगर का एक आयोजन याद आ रहा है, जो सुबह 4 बजे तक चला था और उसमें श्री किशन सरोज जी ने बहुत मन से कई प्यारे गीत सुनाए थे। उस कवि सम्मेलन का संचालन करते हुए श्री सोम ठाकुर ने कहा था कि यह आपके लिए एक स्मरणीय घटना है कि आप इस आयोजन में श्री किशन सरोज जी के गीत सुन रहे हैं।
उस महान गीत ऋषि का स्मरण करते हुए, आज मैं श्रद्धांजलि स्वरूप उनका एक प्रसिद्ध गीत यहाँ शेयर कर रहा हूँ-
धर गये मेंहदी रचे दो हाथ जल में दीप, जन्म जन्मों ताल सा हिलता रहा मन।
बांचते हम रह गये अन्तर्कथा, स्वर्णकेशा गीतवधुओं की व्यथा, ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज, देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन।
जंगलों का दुख, तटों की त्रासदी भूल सुख से सो गयी कोई नदी, थक गयी लड़ती हवाओं से अभागी नाव, और झीने पाल सा हिलता रहा मन।
तुम गये क्या जग हुआ अंधा कुँआ, रेल छूटी रह गया केवल धुँआ, गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात, हाथ के रूमाल सा हिलता रहा मन।