
कहीं अँधेरे से मानूस हो न जाए अदब,
चराग़ तेज़ हवा ने बुझाए हैं क्या क्या|
कैफ़ी आज़मी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
कहीं अँधेरे से मानूस हो न जाए अदब,
चराग़ तेज़ हवा ने बुझाए हैं क्या क्या|
कैफ़ी आज़मी
इस शब के मुक़द्दर में सहर ही नहीं ‘मोहसिन’,
देखा है कई बार चराग़ों को बुझा कर|
मोहसिन नक़वी
अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ,
मैं चाहता था चराग़ों को आफ़्ताब करूँ|
राहत इन्दौरी
इसी से जलते हैं सहरा-ए-आरज़ू में चराग़,
ये तिश्नगी तो मुझे ज़िंदगी से प्यारी है|
वसीम बरेलवी
शब-ए-इंतिज़ार आख़िर कभी होगी मुख़्तसर भी,
ये चराग़ बुझ रहे हैं मिरे साथ जलते जलते|
कैफ़ी आज़मी
उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी जिनके चराग़,
मैं भी कुछ होता तो मेरा भी दिया होता कहीं|
वसीम बरेलवी
चराग़ों का घराना चल रहा है,
हवा से दोस्ताना चल रहा है|
राहत इन्दौरी
इन चराग़ों के तले ऐसे अँधेरे क्यूँ है,
तुम भी रह जाओगे हैरान ज़रा देख तो लो|
जावेद अख़्तर
चराग़ों की लौ से सितारों की ज़ौ तक,
तुम्हें मैं मिलूँगा जहाँ रात होगी|
बशीर बद्र
चराग़ों को आँखों में महफ़ूज़ रखना,
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी|
बशीर बद्र