
उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी जिनके चराग़,
मैं भी कुछ होता तो मेरा भी दिया होता कहीं|
वसीम बरेलवी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी जिनके चराग़,
मैं भी कुछ होता तो मेरा भी दिया होता कहीं|
वसीम बरेलवी
चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है,
तू जिधर हो के गुज़र जाए ख़बर लगता है|
वसीम बरेलवी
रोज़ हम इक अँधेरी धुंध के पार,
क़ाफ़िले रौशनी के देखते हैं|
राहत इन्दौरी
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए|
बशीर बद्र
मेरे वुजूद को अपने में जज़्ब करती हुई,
नई-नई सी कोई रौशनी है और मैं हूं|
कृष्ण बिहारी ‘नूर’
मेरे ख़ुदा मैं अपने ख़यालों को क्या करूँ,
अंधों के इस नगर में उजालों को क्या करूँ|
राजेश रेड्डी
आज पंडित भारत व्यास जी का लिखा एक सुंदर गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ| भारत व्यास जी ने हमारी फिल्मों को बहुत से अमर गीत दिए हैं| आज मैं फिल्म- ‘संत ज्ञानेश्वर’ का यह गीत शेयर कर रहा हूँ जिसका संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी की प्रसिद्ध जोड़ी ने दिया था और इसको लता मंगेशकर जी और मुकेश जी ने अपने मधुर स्वरों में गाया है जो आज तक हमारे मन में गूँजता है|
लीजिए आज प्रस्तुत हैं इस मधुर गीत के बोल –
ज्योत से ज्योत जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो,
राह में आए जो दीन दुखी, सबको गले से लगाते चलो|
जिसका न कोई संगी साथी ईश्वर है रखवाला
जो निर्धन है जो निर्बल है वह है प्रभू का प्यारा
प्यार के मोती लुटाते चलो, प्रेम की गंगा…
आशा टूटी ममता रूठी छूट गया है किनारा
बंद करो मत द्वार दया का दे दो कुछ तो सहारा
दीप दया का जलाते चलो, प्रेम की गंगा…
छाया है घनघोर अंधेरा भटक गई हैं दिशाएं
मानव बन बैठा है दानव किसको व्यथा सुनाएं
धरती को स्वर्ग बनाते चलो, प्रेम की गंगा…
ज्योत से ज्योत जगाते चलो प्रेम की गंगा बहाते चलो
राह में आए जो दीन दुखी सब को गले से लगाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो …
कौन है ऊँचा कौन है नीचा सब में वो ही समाया
भेद भाव के झूठे भरम में ये मानव भरमाया
धर्म ध्वजा फहराते चलो, प्रेम की गंगा …
सारे जग के कण कण में है दिव्य अमर इक आत्मा
एक ब्रह्म है एक सत्य है एक ही है परमात्मा
प्राणों से प्राण मिलाते चलो, प्रेम की गंगा …
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से,
रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बतायेगा|
क़तील शिफ़ाई
जलती-बुझती-सी रोशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकां तन्हा|
मीना कुमारी (महज़बीं बानो)
शम्मा ले आये हैं हम जल्वागह-ए-जानाँ से,
अब दो आलम में उजाले ही उजाले होंगे|
परवेज़ जालंधरी