लंदन प्रवास इस बार का भी समाप्त होने को है, एक सप्ताहांत और बाकी है इसमें।
इस बीच आज मन हो रहा है कि सुकवि श्री सोम ठाकुर जी का एक प्यारा सा गीत शेयर कर लूं। कविता अपनी बात खुद ही कहती है, उसके बारे में मैं अलग से क्या कहूं, बस आप इस गीत का आनंद लीजिए –
जाओ, पर संध्या के संग लौट आना तुम,
चाँद की किरन निहारते न बीत जाय रात।
कैसे बतलाऊँ इस अंधियारी कुटिया में
कितना सूनापन है,
कैसे समझाऊँ, इन हल्की सी साँसों का
कितना भारी मन है,
कौन सहारा देगा दर्द -दाह में बोलो
जाओ पर आँसू के संग लौट आना तुम,
याद के चरन पखारते न बीत जाय रात।
हर न सकी मेरे हारे तन की तपन कभी
घन की ठंडी छाया,
काँटों के हार मुझे पहना के चली गई
मधुऋतु वाली माया,
जी न सकेगा जीवन बिंंधे-बिंंधे अंगों में,
जाओ पर पतझर के संग लौट आना तुम,
शूल की चुभन दुलारते न बीत जाय रात।
धूल भरे मौसम में बज न सकेगी कल तक
गीतों पर शहनाई,
दुपहरिया बीत चली, रह न सकेगी कल तक
बालों में कजराई,
देर नही करना तुम गिनी -चुनी घड़ियाँ हैं,
जाओ पर सपनों के संग लौट आना तुम,
भीगते नयन उघारते न बीत जाय रात।
मेरी डगमग नैया डूबते किनारों से
दुख ने ही बाँधी है,
मेरी आशावादी नगरी की सीमा पर
आज चढ़ी आँधी है,
बह न जाए जीवन का आँचल इन लहरों में,
जाओ, पर पुरवा के संग लौट आना तुम,
सेज की शिकन संवारते न बीत जाय रात।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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