स्वर्गीय कन्हैयालाल नंदन जी हिन्दी के एक श्रेष्ठ साहित्यकार थे जिनको पद्मश्री सम्मान तथा अनेक साहित्यिक पुरस्कार प्रदान किए गए थे और उन्होंने बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ का कुशल संपादन भी किया था|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय कन्हैयालाल नंदन जी का यह गीत –
तेरी याद का ले के आसरा, मैं कहाँ-कहाँ से गुज़र गया, उसे क्या सुनाता मैं दास्ताँ, वो तो आईना देख के डर गया।
मेरे ज़ेहन में कोई ख़्वाब था उसे देखना भी गुनाह था वो बिखर गया मेरे सामने सारा गुनाह मेरे सर गया।
मेरे ग़म का दरिया अथाह है फ़क़त हौसले से निबाह है जो चला था साथ निबाहने वो तो रास्ते में उतर गया।
मुझे स्याहियों में न पाओगे मैं मिलूंगा लफ़्ज़ों की धूप में मुझे रोशनी की है जुस्तज़ू मैं किरन-किरन में बिखर गया।
उसे क्या सुनाता मैं दास्ताँ, वो तो आईना देख के डर गया।
एक बार फिर मैं हिन्दी के सुरीले गीतकार, जिनको हम गीतों के राजकुंवर भी कहते हैं और जिन्होंने हिन्दी काव्य मंचों, काव्य साहित्य और हिन्दी फिल्मों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है, ऐसे स्वर्गीय गोपाल दास ‘नीरज’ जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| यह गीत भी उन गीतों में शामिल है जिनको शायद नीरज जी ने काव्य मंचों से कभी नहीं गाया|
लीजिए आज प्रस्तुत है, स्वर्गीय नीरज जी का यह गीत –
प्राण ! पहले तो हृदय तुमने चुराया छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की
बीत जाती रात हो जाता सबेरा, पर नयन-पक्षी नहीं लेते बसेरा, बन्द पंखों में किये आकाश-धरती खोजते फिरते अँधेरे का उजेरा, पंख थकते, प्राण थकते, रात थकती खोजने की चाह पर थकती न मन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
स्वप्न सोते स्वर्ग तक आंचल पसारे, डाल कर गल-बाँह भू, नभ के किनारे किस तरह सोऊँ मगर मैं पास आकर बैठ जाते हैं उतर नभ से सितारे, और हैं मुझको सुनाते वह कहानी, है लगा देती झड़ी जो अश्रु-घन की।
सिर्फ क्षण भर तुम बने मेहमान घर में, पर सदा को बस गये बन याद उर में, रूप का जादू किया वह डाल मुझ पर आज मैं अनजान अपने ही नगर में, किन्तु फिर भी मन तुम्हें ही प्यार करता क्या करूँ आदत पड़ी है बालपन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
पर न अब मुझको रुलाओ और ज़्यादा, पर न अब मुझको मिटाओ और ज़्यादा, हूँ बहुत मैं सह चुका उपहास जग का अब न मुझ पर मुस्कराओ और ज़्यादा, धैर्य का भी तो कहीं पर अन्त है प्रिय ! और सीमा भी कहीं पर है सहन की।
आज एक बार फिर मैं स्वर्गीय भवानी प्रसाद मिश्र जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| भवानी दादा हिन्दी के एक अनूठे कवि थे, आज की इस कविता में भवानी दादा ने अपने उन परिजनों को एक अलग अंदाज़ में याद किया है जो उनको छोड़कर जा चुके थे|
लीजिए आज प्रस्तुत है, स्वर्गीय भवानी दादा की यह रचना –
सुनाई पड़ते हैं सुनाई पड़ते हैं कभी कभी उनके स्वर जो नहीं रहे
दादाजी और बाई और गिरिजा और सरस और नीता और प्रायः सुनता हूँ जो स्वर वे शिकायात के होते हैं
कि बेटा या भैया या मन्ना
ऐसी-कुछ उम्मीद की थी तुमसे चुपचाप सुनता हूँ और ग़लतियाँ याद आती हैं दादाजी को
अपने पास नहीं रख पाया उनके बुढ़ापे में
निश्चय ही कर लेता तो ऐसा असंभव था क्या रखना उन्हें दिल्ली में
पास नहीं था बाई के उनके अंतिम घड़ी में हो नहीं सकता था क्या
जेल भी चला गया था उनसे पूछे बिना गिरिजा!
और सरस और नीता तो बहुत कुछ कहते हैं
जब कभी सुनाई पड़ जाती है इनमें से किसी की आवाज़ बहुत दिनों के लिए बेकाम हो जाता हूँ एक और आवाज़
सुनाई पड़ती है जीजाजी की वे शिकायत नहीं करते
हंसी सुनता हूँ उनकी मगर हंसी में शिकायत का स्वर नहीं होता ऐसा नहीं है मैं विरोध करता हूँ इस रुख़ का प्यार क्यों नहीं देते
चले जाकर अब दादाजी या बाई गिरिजा या सरस नीता और जीजाजी
जैसा दिया करते थे तब जब मुझे उसकी उतनी ज़रुरत नहीं थी|
आज फिर से लंबे समय बाद दिल्ली-गुड़गांव क्षेत्र में आया हूँ| कुछ लिख पाऊँगा तो लिखूँगा, फिलहाल दिल्ली की एक पुरानी यात्रा से जुड़ा आलेख शेयर कर रहा हूँ|
काफी लंबे समय के बाद दिल्ली आना हुआ, उस दिल्ली में जो लगभग डेढ़ वर्ष पहले तक मेरी थी, उसी तरह जैसे और भी लाखों, करोडों लोग इस या किसी भी महानगर को अपना मानते हैं। एक फिल्म जिसका मैंने पहले भी अपने ब्लॉग में ज़िक्र किया है- ‘कांकरर्स ऑफ दा गोल्डन सिटी’, इस फिल्म में एक आदमी आता है महानगर और कहता है कि एक दिन मैं इस शहर का मालिक बन जाऊंगा, लेकिन फिल्म के अंत में वह लुट-पिटकर वापस लौटता है।
हर कोई मुकेश अंबानी तो नहीं हो सकता, वैसे मुकेश अंबानी भी किसी महानगर का मालिक होने का दावा नहीं कर सकता। हद से हद उसका अपना परिवार बहुत सी मंज़िलों वाले घर में रह लेगा, जिसमें सोचना पड़े कि आज किस ‘फ्लोर’ को धन्य किया जाए! मुझे लगता है कि पुराने जमाने के महलों में भी इस तरह की दुविधा रहा करती होगी!
फिर दिल्ली में तो जहाँ आज के बहुत सारे नव धनाढ्य रहते हैं, वहीं बहुत से महल और किले भी हैं, जिनमें से कुछ तो खंडहर भी बन चुके हैं।
इस बार जब फिर से दिल्ली आया, किसी हद तक एक टूरिस्ट की हैसियत से तो यही खयाल आया कि वह कौन सी प्रमुख बात है जो दिल्ली को दिल्ली बनाती है!
राजा-महाराजाओं के किले तो हैं ही, जिनमें मुगल काल और यहाँ तक कि महाभारत काल तक की यादें समेटी गई हैं। इसके बाद ब्रिटिश शासकों ने भी- आज का राष्ट्रपति भवन (जो शायद वायसराय हाउस था), संसद भवन, सचिवालय, बोट क्लब और ढ़ेर सारी इमारतें बनवाई थीं, जो स्थापत्य कला की बेजोड़ धरोहर हैं।
महल और सरकारी इमारतें तैयार कराने में जहाँ शासकों का हाथ होता है, वहीं कुछ मंदिर-मस्ज़िद भी शासक बनवाते हैं, इस काम में कुछ श्रद्धालु पूंजीपतियों का भी योगदान होता है, जैसे बहुत से स्थानों पर बने लक्ष्मी नारायण मंदिर आज ‘बिड़ला मंदिर’ के नाम से जाने जाते हैं, जिन्होंने उनको बनवाया है। इसमें भी प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। बिड़ला जी का अधिक जोर मंदिर बनवाने पर है तो टाटा जी का अस्पताल अथवा रोग-अनुसंधान संबंधी संस्थान बनाने पर ज्यादा ध्यान रहा है।
हाँ एक बात और कि बेशक कुछ पहल करने वाले तो रहते ही हैं, लेकिन आज के समय में भी बहुत सारे नए-नए मंदिर श्रद्धालु जनता के पैसे से बनते जाते हैं। इसमें भी यह देखना पड़ता है कि आजकल कौन से भगवान ज्यादा चल रहे हैं। आप स्वयं भी देखें तो मालूम हो जाएगा कुछ भगवान तो पिछले दस-बीस सालों में ही ज्यादा पॉपुलर हुए हैं! वैसे पिछले कुछ समय में ही दिल्ली में लोटस टेंपल और मयूर विहार के पास बना अक्षर धाम मंदिर आधुनिक समय की बड़ी उपलब्धि हैं।
खैर मैं भटकता हुआ कहाँ से कहाँ आ गया, मैं बात इस विषय पर करना चाह रहा था कि आखिर वह क्या है जो दिल्ली को दिल्ली बनाता है! दिल्ली देश की राजधानी तो है ही, देश भर के लोग यहाँ के लगभग सभी इलाकों में इस तरह रहते हैं कि इस महानगर की अपनी अलग कोई पहचान है ही नहीं। दिन-दहाड़े यहाँ कोई किसी को मारकर चला जाए, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता!
हाँ पहचान बनाने वाले तत्वों में एक तो देश की राजनैतिक सत्ता यहाँ पर है, ये देश की राजनैतिक राजधानी है, सांस्कृतिक राजधानी कहने में तो संकोच होता है, हालांकि कुछ ऐसे संस्थान यहाँ पर हैं, जैसे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, और भी बहुत हैं, जिनका योगदान इस बेदिल नगर को सांस्कृतिक केंद्र बनाने में है।
और बहुत सारी संस्थाएं आदि हैं, जैसे देश का सर्वोच्च न्यायालय यहाँ है, जो समय-समय पर देश में हलचल पैदा करता रहता है। बहुत बड़ी भूमिका इस संस्थान की है, लोकतंत्र को मजबूत बनाने में!
एक और स्थान है दिल्ली में जहाँ प्राचीनता की मिसाल- पुराना किला है और उसके बगल में ही प्रदर्शनी मैदान है, जहाँ आधुनिकतम विकास की मिसाल बहुत सी प्रदर्शनियों से मिलती है। यहाँ लगने वाले ‘पुस्तक मेले’ भी साहित्य-प्रेमियों के लिए बहुत उपयोगी होते हैं।
बस ऐसे ही कुछ स्थानों, संस्थानों, गतिविधियों के बारे में बात करने का मन था, जो इस बेदिल शहर को अच्छी पहचान दिलाते हैं। वैसे बुरी पहचान दिलाने वाले तत्व तो बड़े शहरों में होते ही हैं।
आगे अगर टाइम मिला और मूड भी हुआ तो इन स्थानों, संस्थानों और गतिविधियों के बारे में बात करूंगा, जो राजधानी दिल्ली की पहचान हैं।
हिन्दी के श्रेष्ठ गीतकार डॉक्टर बुद्धिनाथ मिश्र जी का एक गीत आज शेयर कर रहा हूँ| डॉक्टर मिश्र जी श्रेष्ठ गीतकार, संपादक और राजभाषा से जुड़े उच्च अधिकारी रहे हैं| कुछ समय तक मैं और वे एक ही संस्थान – हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड में रहे और मुझे एक अवसर और याद आता है जब मैंने भी उनके संचालन में, दार्जीलिंग में आयोजित एक कवि गोष्ठी में कविता पाठ किया था| बहुत सृजनशील गीतकार और सरल हृदय व्यक्ति हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है डॉक्टर बुद्धिनाथ मिश्र जी का यह गीत जिसमें कवि ने एक वृद्धा की संवेदनाओं को बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है–
अपनी चिट्ठी बूढ़ी माँ मुझसे लिखवाती है । जो भी मैं लिखता हूँ वह कविता हो जाती है ।
कुशल-क्षेम पूरे टोले का कुशल-क्षेम घर का बाट जोहते मालिक की बेबस चर-चाँचर का ।
इतनी छोटी-सी पुर्जी पर कितनी बात लिखूँ काबिल बेटों के हाथों हो रहे अनादर का ।
अपनी बात जहाँ आई बस, चुप हो जाती है । मेरी नासमझी पर यों ही झल्ला जाती है ।
कभी-कभी जब भूल विधाता की मुझको छेड़े मुझे मुरझता देख दिखाती सपने बहुतेरे ।
कहती– तुम हो युग के सर्जक बेहतर ब्रह्मा से नीर-क्षीर करने वाले हो तुम्ही हंस मेरे ।
फूलों से भी कोमल शब्दों से सहलाती है । मुझे बिठाकर राजहंस पर सैर कराती है ।
कभी देख एकान्त सुनाती कथा पुरा-नूतन ऋषियों ने किस तरह किए श्रुति-मंत्रों के दर्शन ।
कैसे हुआ विकास सृष्टि का हरि अवतारों से वाल्मीकि ने रचा द्रवित हो कैसे रामायण ।
कहते-कहते कथा शोक-विह्वल हो जाती है । और तपोवन में अतीत के वह खो जाती है । (चर-चाँचर=कृषि योग्य निचली भूमि और जलाशय)