सामने फ्लैट पर!

हिन्दी के विख्यात व्यंग्यकार और कवि स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की एक कविता आज शेयर कर रहा हूँ| त्यागी जी की इस कविता में भी व्यंग्यकार की दृष्टि परिलक्षित होती है|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की यह कविता –

सामने फ्लैट पर
जाड़ों की सुबह ने
अलसाकर जूड़ा बाँधा;

नीचे के तल्ले में
मफ़लर से मुँह ढाँप
सुबह ने सिगरेट पी

चिक पड़ी गोश्त की दुकान पर
सुबह के टुकड़े-टुकड़े किए गए,

मेरे बरामदे में
सुबह ने अख़बार फ़ेंका;

इसके बाद बन्बा खोल
मांजने लगी बरतन

किनारे की बस्तियों से
कमर पर गट्ठर लाद
सुबह चली नदी की ओर;

सिगनल के पास
मुँह में कोयला भरे लाल सीटी देती
सुबह पुल पर गुज़री।


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
********

समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं!

शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं,
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं|

वसीम बरेलवी

उन ज़ुल्फ़ों में रात हो गई है!

अब हो मुझे देखिए कहाँ सुब्ह,
उन ज़ुल्फ़ों में रात हो गई है|

फ़िराक़ गोरखपुरी

ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला!

सुब्ह-दम छोड़ गया निकहत-ए-गुल की सूरत,
रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला|

अहमद फ़राज़

विसर्जन!

छायावाद युग की कविताओं को शेयर करने के क्रम में आज उस युग की एक प्रमुख कवियित्री स्वर्गीय महादेवी वर्मा जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| महादेवी जी को उनके सुमधुर गीतों के लिए जाना जाता है|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय महादेवी वर्मा जी की यह कविता –

निशा की, धो देता राकेश
चाँदनी में जब अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधुमदिरा का मोल;

बिछाती थी सपनों के जाल
तुम्हारी वह करुणा की कोर,
गई वह अधरों की मुस्कान
मुझे मधुमय पीडा़ में बोर;

झटक जाता था पागल वात
धूलि में तुहिन कणों के हार;
सिखाने जीवन का संगीत
तभी तुम आये थे इस पार!

गये तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण!
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन गान।


भूलती थी मैं सीखे राग
बिछलते थे कर बारम्बार,
तुम्हें तब आता था करुणेश!
उन्हीं मेरी भूलों पर प्यार!

नहीं अब गाया जाता देव!
थकी अँगुली हैं ढी़ले तार
विश्ववीणा में अपनी आज
मिला लो यह अस्फुट झंकार!


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
********

रात है जो कटी नहीं है!

इक सुब्ह है जो हुई नहीं है,
इक रात है जो कटी नहीं है|

अली सरदार जाफ़री

सामने फ्लैट पर!

स्वर्गीय रवींद्रनाथ त्यागी जी की पहचान मुख्य रूप से एक व्यंग्य लेखक के रूप में थी लेकिन उन्होंने कुछ सुंदर कविताएं भी लिखी थीं| आज मैं स्वर्गीय रवींद्रनाथ त्यागी जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ जिसमें दिन का चित्रण देखिए किस-किस रूप में किया गया है|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय रवींद्रनाथ त्यागी जी की यह कविता –

सामने फ्लैट पर
जाड़ों की सुबह ने
अलसाकर जूड़ा बाँधा;

नीचे के तल्ले में
मफ़लर से मुँह ढाँप
सुबह ने सिगरेट पी

चिक पड़ी गोश्त की दुकान पर
सुबह के टुकड़े-टुकड़े किए गए,

मेरे बरामदे में
सुबह ने अख़बार फ़ेंका;

इसके बाद बंबा खोल
मांजने लगी बरतन

किनारे की बस्तियों से
कमर पर गट्ठर लाद
सुबह चली नदी की ओर;

सिगनल के पास
मुँह में कोयला भरे लाल सीटी देती
सुबह पुल पर गुज़री।


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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जलती है सहर होते तक!

ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़मर्ग इलाज,
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक |

मिर्ज़ा ग़ालिब

सुर्ख़ियों मे बिखेरता है मुझे!

सुब्‌ह अख़बार की हथेली पर,
सुर्ख़ियों मे बिखेरता है मुझे|

बेकल उत्साही

कहीं शाम तक न पहुँचे!

नयी सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़्ता-रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे।

शकील बदायूँनी