एक बार फिर मैं जनकवि नागार्जुन जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| स्वर्गीय नागार्जुन जी विद्रोह और क्रान्ति की कविताओं के लिए जाने जाते थे, परंतु यह अलग तरह की कविता है, जिसमें एक रौबीले दिखने वाले बस चालक की ममता, अपनी पुत्री के प्रति उसके प्रेम को प्रतिबिंबित किया गया है, बस में उसके सामने लटकी रंग-बिरंगी चूड़ियों के माध्यम से|

लीजिए प्रस्तुत है नागार्जुन जी की यह अलग किस्म की कविता-
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से ऊपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने|
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा,
और मैंने एक नज़र उसे देखा|
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में|
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर|
और मैंने झुककर कहा –
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वरना किसे नहीं भाँएगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार
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