
अब क्या बताएँ कौन था क्या था वो एक शख़्स,
गिनती के चार हर्फ़ों का जो नाम रह गया|
निदा फ़ाज़ली
आसमान धुनिए के छप्पर सा
अब क्या बताएँ कौन था क्या था वो एक शख़्स,
गिनती के चार हर्फ़ों का जो नाम रह गया|
निदा फ़ाज़ली
उसका क़ुसूर ये था बहुत सोचता था वो,
वो कामयाब हो के भी नाकाम रह गया|
निदा फ़ाज़ली
उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए,
दहशत-गरों के हाथ में इस्लाम रह गया|
निदा फ़ाज़ली
छोटी थी उम्र और फ़साना तवील था,
आग़ाज़ ही लिखा गया अंजाम रह गया|
निदा फ़ाज़ली
कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया,
हर काम में हमेशा कोई काम रह गया|
निदा फ़ाज़ली
आइना देख के निकला था मैं घर से बाहर,
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा|
निदा फ़ाज़ली
मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे,
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा|
निदा फ़ाज़ली
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे,
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा|
निदा फ़ाज़ली
किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से,
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा|
निदा फ़ाज़ली
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा,
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा|
निदा फ़ाज़ली