
इस घर में जो कशिश थी, गई उन दिनों के साथ,
इस घर का साया अब मेरे सर पर नहीं रहा|
मुनीर नियाज़ी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
इस घर में जो कशिश थी, गई उन दिनों के साथ,
इस घर का साया अब मेरे सर पर नहीं रहा|
मुनीर नियाज़ी
साहिर लुधियानवी साहब शायरी और हिन्दी फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले लोगों में एक जाना माना नाम थे| साहिर साहब एक स्वाभिमानी रचनाकार थे और उन्होंने फिल्म जगत में गीतकारों को उचित सम्मान दिलाने के लिए भी उल्लेखनीय काम किया|
साहिर साहब के फिल्मी गीत तो पहले भी शेयर किए हैं और आगे भी करूंगा, लीजिए आज प्रस्तुत है साहिर लुधियानवी साहब की यह नज़्म –
रात सुनसान थी, बोझल थी फज़ा की साँसें
रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साए
दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने
मेरी कोशिश थी कि कमबख़्त को नींद आ जाए|
देर तक आंखों में चुभती रही तारों की चमक
देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में
अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए
तू न आई मगर इस रात की पहनाई में|
यूँ अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आई
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख़ सितारा टूटे|
शहद सा घुल गया तल्ख़ाबा-ए-तन्हाई में
रंग सा फैल गया दिल के सियहखा़ने में
देर तक यूँ तेरी मस्ताना सदायें गूंजीं
जिस तरह फूल चटखने लगें वीराने में|
तू बहुत दूर किसी अंजुमन-ए-नाज़ में थी
फिर भी महसूस किया मैंने कि तू आई है
और नग़्मों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख़्वाब
मेरी रूठी हुई नींदों को मना लाई है|
रात की सतह पे उभरे तेरे चेहरे के नुक़ूश
वही चुपचाप सी आँखें वही सादा सी नज़र
वही ढलका हुआ आँचल वही रफ़्तार का ख़म
वही रह रह के लचकता हुआ नाज़ुक पैकर|
तू मेरे पास न थी फिर भी सहर होने तक
तेरा हर साँस मेरे जिस्म को छू कर गुज़रा
क़तरा क़तरा तेरे दीदार की शबनम टपकी
लम्हा लम्हा तेरी ख़ुशबू से मुअत्तर गुज़रा|
अब यही है तुझे मंज़ूर तो ऐ जान-ए-बहार
मैं तेरी राह न देखूँगा सियाह रातों में
ढूंढ लेंगी मेरी तरसी हुई नज़रें तुझ को
नग़्मा-ओ-शेर की उभरी हुई बरसातों में|
अब तेरा प्यार सताएगा तो मेरी हस्ती
तेरी मस्ती भरी आवाज़ में ढल जायेगी
और ये रूह जो तेरे लिए बेचैन सी है
गीत बन कर तेरे होठों पे मचल जायेगी|
मेरे नग़्मात तेरे हुस्न की ठंडक लेकर
मेरे तपते हुए माहौल में आ जायेंगे
चंद घड़ियों के लिए हो कि हमेशा के लिए
मेरी जागी हुई रातों को सुला जायेंगे|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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रस्ता न भूलिएगा, दुखों के मकान का,
जिस ओर को दुआर है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
बैठा है तनहा बाग में, एक बूढ़ा आदमी,
सावन की यादगार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
टापें बिछा रही हैं, अंधेरे में जामुनें,
इक तेज घुड़सवार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
शब्दों की पींग मारते, झूलों का सिलसिला,
जिस सोच पर उधार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
मानेगी क्या उखाड़ के, जड़ से ही अब अरे,
इक संगदिल बयार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
सावन चढ़े पड़ोस के, दरिया के शोर में,
इक अजनबी का प्यार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
सावन का इश्तिहार है, उस शोख़ का बदन,
बिजली, घटा, मल्हार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
मिलते हैं चंद साए, धुँधलकों में अब जिधर,
इक पीर का मज़ार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त