
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी,
इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी|
अहमद फ़राज़
आसमान धुनिए के छप्पर सा
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी,
इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी|
अहमद फ़राज़
मुझपे अपना जुर्म साबित हो न हो लेकिन सुनो,
लोग कहते हैं कि उसको बेवफ़ा मैंने किया|
अहमद फ़राज़
वो ठहरता क्या कि गुजरा तक नहीं जिसके लिए,
घर तो घर, हर रास्ता, आरास्ता* मैंने किया|
*सजाया
अहमद फ़राज़
हो सजावारे-सजा क्यों जब मुकद्दर में मेरे,
जो भी उस जाने-जहाँ ने लिख दिया, मैंने किया|
अहमद फ़राज़
वो मेरी पहली मोहब्बत, वो मेरी पहली शिकस्त,
फिर तो पैमाने-वफ़ा सौ मर्तबा मैंने किया|
अहमद फ़राज़
कैसे नामानूस लफ़्ज़ों की कहानी था वो शख्स,
उसको कितनी मुश्किलों से तर्जुमा मैंने किया|
अहमद फ़राज़
संगदिल है वो तो क्यूं इसका गिला मैंने किया,
जबकि खुद पत्थर को बुत, बुत को खुदा मैंने किया|
अहमद फ़राज़
आज मैं स्वर्गीय केदारनाथ सिंह जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ| केदारनाथ सिंह जी हिन्दी के प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं और उनको ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ सहित अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए थे| आज का यह नवगीत अज्ञेय जी द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’ में शामिल एक किया गया था|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय केदारनाथ सिंह जी का यह नवगीत, जो गर्मी की दोपहर का एक अलग ही चित्र प्रस्तुत करता है –
झरने लगे नीम के पत्ते
बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में
रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।
साँस रोक कर खड़े हो गए
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को
‘चुर-मुर’ ध्वनि बाँसों के वन की ।
थककर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में —
और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन,
बीत गईं रातें ठिठुरन की ।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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तुझे चाँद बन के मिला था जो, तेरे साहिलों पे खिला था जो,
वो था एक दरिया विसाल का, सो उतर गया उसे भूल जा।
अमजद इस्लाम
तो ये किसलिए शबे-हिज्र के उसे हर सितारे में देखना,
वो फ़लक कि जिसपे मिले थे हम, कोई और था उसे भूल जा।
अमजद इस्लाम