
इसे साध लें, उसे बांध लें,
सचमुच खूंटे हैं हम लोग।
शेरजंग गर्ग
आसमान धुनिए के छप्पर सा
इसे साध लें, उसे बांध लें,
सचमुच खूंटे हैं हम लोग।
शेरजंग गर्ग
फिल्मी दुनिया के जनकवि स्वर्गीय शैलेन्द्र जी की मृत्यु होने पर जनकवि बाबा नागार्जुन जी द्वारा उनके प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप लिखी गई एक रचना आज शेयर कर रहा हूँ| इस कविता से मालूम होता कि बाबा नागार्जुन के मन में, फिल्मी दुनिया में सक्रिय अपने इस सृजनशील साथी के प्रति कितना स्नेह, लगाव और आदर था|
लीजिए आज बाबा नागार्जुन जी द्वारा शैलेन्द्र जी के प्रति उनकी श्रद्धांजलि के रूप में लिखी गई इस कविता का आस्वादन करते हैं-
‘गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ ।’
सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी,
भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी ।
जहाँ कहीं भी अंतर्मन से, ॠतुओं की सरगम सुनते थे,
ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे ।
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
साथी थे, मज़दूर-पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम ।
युग की अनुगुंजित पीड़ा ही घोर घन-घटा-सी छाई
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई ।
तिकड़म अलग रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता, आख़िर तुमको रास न आई ।
ओ जन मन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती,
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती ।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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उर्दू के विख्यात शायर निदा फाजली साहब की एक गजल शेयर कर रहा हूँ, निदा साहब बड़ी सहज भाषा में बहुत गहरी बात कह देते हैं| उनकी कुछ पंक्तियाँ जो बरबस याद आ जाती हैं, वे हैं- ‘मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार, दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी, बिन तार’, ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए’, ‘दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है’|
लीजिए आज उनकी इस गजल का आनंद लेते हैं-
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता,
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता|
सब कुछ तो है, क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें,
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता |
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में,
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता|
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा,
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता|
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है ,
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नहीं जाता |
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज, मैं फिर से भारत के नोबल पुरस्कार विजेता कवि गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर की एक और कविता का अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह उनकी अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित जिस कविता का भावानुवाद है, उसे अनुवाद के बाद प्रस्तुत किया गया है। मैं अनुवाद के लिए अंग्रेजी में मूल कविताएं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध काव्य संकलन- ‘PoemHunter.com’ से लेता हूँ। लीजिए पहले प्रस्तुत है मेरे द्वारा किया गया उनकी कविता ‘The Flower School’ का भावानुवाद-
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता
तूफानी बादल जब आकाश में गरजते हैं और जून माह की वर्षा बौछार धरती पर आती है|
नमी से भरी पुरवाई जब रेतीले मैदानों पर आगे बढ़ती आती है
बांस वनों में अपना मधुर वाद्य बजाने के लिए|
तब अचानक पुष्प टोलियों में प्रकट हो जाते हैं, कोई नहीं जानता कहाँ से
और घास के ऊपर वे जंगली मस्ती में नृत्य करते हैं|
माँ, मुझे वास्तव में ऐसा लगता है की पुष्प किसी भूमिगत विद्यालय में जाते हैं|
बंद दरवाजों के भीतर वे अपने पाठ पढ़ते हैं, और यदि वे चाहते हैं कि
नियत समय से पहले वे बाहर आकर खेलें, तो उनके शिक्षक उनको
किनारे पर खड़ा कर देते हैं|
जब वर्षा आती है, तब उनकी छुट्टियाँ हो जाती हैं|
जंगल में शाखाएँ आपस में उलझ जाती हैं, और पत्तियाँ सरसराती हैं
जंगली हवा के कारण, तूफानी बादल अपने विशाल हाथों से तालियाँ बजाते हैं, और
बालक पुष्प बाहर आते हैं अपने गुलाबी, पीत और श्वेत वस्त्रों में|
क्या तुम जानती हो माँ, उनका घर आकाश में वहाँ है, जहां सितारे हैं|
क्या तुमने यह नहीं देखा कि वे वहाँ जाने के लिए इतने आतुर क्यों हैं? क्या तुम
यह नहीं जानतीं कि वे इतनी जल्दी में क्यों हैं?
बेशक, मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि वे किसकी ओर अपना हाथ उठाते हैं; उनकी भी माँ है, जैसे मेरी है|
-रवींद्रनाथ ठाकुर
और अब वह अंग्रेजी कविता, जिसके आधार मैं भावानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ-
The Flower School
When storm-clouds rumble in the sky and June showers come down.
The moist east wind comes marching over the heath to blow its
bagpipes among the bamboos.
Then crowds of flowers come out of a sudden, from nobody knows
where, and dance upon the grass in wild glee.
Mother, I really think the flowers go to school underground.
They do their lessons with doors shut, and if they want to
come out to play before it is time, their master makes them stand
in a corner.
When the rain come they have their holidays.
Branches clash together in the forest, and the leaves rustle
in the wild wind, the thunder-clouds clap their giant hands and the
flower children rush out in dresses of pink and yellow and white.
Do you know, mother, their home is in the sky, where the stars
are.
Haven’t you see how eager they are to get there? Don’t you
know why they are in such a hurry?
Of course, I can guess to whom they raise their arms; they
have their mother as I have my own.
-Rabindranath Tagore
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज मैं पंडित श्रीकृष्ण तिवारी जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ, जो मेरे हमनाम हैं (मैं शर्मा हूँ, वे तिवारी हैं), वाराणसी के निवासी हैं और उन्होंने कुछ बहुत सुंदर नवगीत लिखे हैं| मैंने अपनी संस्था के लिए किए गए आयोजनों में से एक में श्री तिवारी जी को बुलाया था जिसमें उन्होंने अपने श्रेष्ठ काव्य पाठ के अलावा बहुत सुंदर संचालन भी किया था|
लीजिए प्रस्तुत है श्री तिवारी जी का यह गीत जो अव्यवस्था, अराजकता और शासन की असफलताओं की ओर इशारा करता है –
भीलों ने बाँट लिए वन,
राजा को खबर तक नहीं|
पाप ने लिया नया जनम
दूध की नदी हुई जहर,
गाँव, नगर धूप की तरह
फैल गई यह नई ख़बर,
रानी हो गई बदचलन
राजा को खबर तक नहीं|
कच्चा मन राजकुंवर का
बेलगाम इस कदर हुआ,
आवारे छोरे के संग
रोज खेलने लगा जुआ,
हार गया दांव पर बहन
राजा को खबर तक नहीं|
उलटे मुंह हवा हो गई
मरा हुआ सांप जी गया,
सूख गए ताल -पोखरे
बादल को सूर्य पी गया,
पानी बिन मर गए हिरन
राजा को खबर तक नहीं|
एक रात काल देवता
परजा को स्वप्न दे गए,
राजमहल खंडहर हुआ
छत्र -मुकुट चोर ले गए,
सिंहासन का हुआ हरण
राजा को खबर तक नहीं|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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लीजिए आज प्रस्तुत है, स्वर्गीय रामावतार त्यागी जी का लिखा एक सुंदर गीत| रामावतार त्यागी जी किसी समय हिन्दी कवि सम्मेलनों में गूंजने वाला एक प्रमुख स्वर हुआ करते थे| यह गीत भी उनकी रचनाशीलता का एक उदाहरण है-
मैं तो तोड़ मोह के बंधन
अपने गाँव चला जाऊँगा,
तुम आकर्षक सम्बन्धों का,
आँचल बुनते रह जाओगे|
मेला काफी दर्शनीय है
पर मुझको कुछ जमा नहीं है,
इन मोहक कागजी खिलौनों में
मेरा मन रमा नहीं है|
मैं तो रंगमंच से अपने
अनुभव गाकर उठ जाऊँगा,
लेकिन, तुम बैठे गीतों का
गुँजन सुनते रह जाओगे|
आँसू नहीं फला करते हैं
रोने वाले क्यों रोता है?
जीवन से पहले पीड़ा का,
शायद अंत नहीं होता है|
मैं तो किसी सर्द मौसम की
बाँहों में मुरझा जाऊँगा,
तुम केवल मेरे फूलों को
गुमसुम चुनते रह जाओगे|
मुझको मोह जोड़ना होगा
केवल जलती चिंगारी से,
मुझसे संधि नहीं हो पाती
जीवन की हर लाचारी से|
मैं तो किसी भँवर के कंधे
चढकर पार उतर जाऊँगा,
तट पर बैठे इसी तरह से
तुम सिर धुनते रह जाओगे|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज स्वर्गीय गोपाल प्रसाद व्यास जी की एक हास्य कविता शेयर कर रहा हूँ| व्यास जी किसी समय दिल्ली में ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के कर्ता-धर्ता हुआ करते थे| लाल-किले पर प्रतिवर्ष स्वाधीनता दिवस और गणतन्त्र दिवस पर आयोजित होने वाले विराट कवि-सम्मेलन के भी वही आयोजक होते थे, जहां मुझे बहुत से प्रमुख कवियों को सुनने का सौभाग्य मिला|
व्यास जी प्रत्येक रविवार को दैनिक हिंदुस्तान में ‘नारद जी खबर लाए हैं’ स्तंभ भी लिखते थे, जो काफी लोकप्रिय था और उसमें सामयिक घटनाओं पर रोचक एवं सटीक टिप्पणियाँ की जाती थीं|
लीजिए प्रस्तुत है गोपाल प्रसाद ‘व्यास’ जी की यह प्रसिद्ध कविता-
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज मैं कतील शिफाई जी की एक गजल शेयर कर रहा हूँ| इस गजल के कुछ शेर जगजीत सिंह जी ने भी गाए हैं| बड़ी सुंदर गजल है, आइए इसका आनंद लेते हैं-
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज, मैं फिर से भारत के नोबल पुरस्कार विजेता कवि गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर की एक और कविता का अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह उनकी अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित जिस कविता का भावानुवाद है, उसे अनुवाद के बाद प्रस्तुत किया गया है। मैं अनुवाद के लिए अंग्रेजी में मूल कविताएं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध काव्य संकलन- ‘PoemHunter.com’ से लेता हूँ। लीजिए पहले प्रस्तुत है मेरे द्वारा किया गया उनकी कविता ‘Vocation’ का भावानुवाद-
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता
-रवींद्रनाथ ठाकुर
और अब वह अंग्रेजी कविता, जिसके आधार मैं भावानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ-
-Rabindranath Tagore
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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उर्दू का एक प्रसिद्ध शेर है, किसी के जाने की ज़िद को लेकर, शायर का नाम मुझे याद नहीं आ रहा-
एक और फिल्मी गीत की पंक्ति हैं-
पता नहीं क्यों, मेरे मन में इस विषय पर लिखने की बात बिजली के जाने के प्रसंग से आई| आजकल बंगलौर में हूँ, जहां हमारी सोसायटी में तो दिन में 20-25 बार बिजली जाती है| इस विषय में चकाचक ‘बनारसी’ की एक हास्य गजल की पंक्तियाँ थीं-
एक गीत फिल्म- कन्हैया का है, मुकेश जी की आवाज़ में, जिसमे राजकपूर एक लुढ़क रही दारू की बोतल को पुकारते हुए गाते हैं, लेकिन लोग उसे नायिका से जोड़ लेते हैं| गीत है-
जाने के इस तरह बहुत से उदाहरण हैं, जैसे ‘शाम’ अचानक चली जाती है| मीना कुमारी जी की पंक्तियाँ हैं शायद-
जाने के बारे में ही तो यह गीत है-
एक शेर और याद आ रहा है, वसीम बरेलवी साहब का-
वैसे जाने के बाद भी आने की उम्मीद तो लगी ही रहती है, और जाने वाले लौटकर भी कभी आते हैं| लेकिन ऐसा भी तो लगता है न –
और जैसा हम जानते हैं, एक जाना तो ऐसा भी होता है, जिसके बाद वापसी नहीं होती-
गीत, गजल तो बहुत होंगे, किसी के जाने को लेकर और इस विषय पर कई आलेख लिखे जा सकते हैं, परंतु अंत में स्वर्गीय किशन सरोज जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं, जो लाजवाब हैं-
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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