स्वर्गीय कुबेरदत्त जी किसी ज़माने में मेरे मित्र हुआ करते थे, जब वे बेरोज़गार थे, संघर्ष कर रहे थे, बहुत अच्छे गीत लिखते थे| बाद में वे दूरदर्शन में पदस्थापित हो गए, काफी प्रगति की उन्होंने, दूरदर्शन पर बहुत सुंदर कार्यक्रम भी दिए, साहित्यिक गोष्ठियों आदि के तो वे विशेषज्ञ थे, लेकिन दूरदर्शन में जाने के बाद गीत उनसे छूट गए, बल्कि उन्होंने अन्य अनेक प्रगतिशील साथियों की तरह गीत को ‘पलायन’ कहना शुरू कर दिया| मैं भी दिल्ली से दूर अनेक स्थानों पर पदस्थापित रहा और उनसे संपर्क पूरी तरह टूट गया|
दूरदर्शन में रहते हुए उन्होंने अलग तरह की ‘दृष्टियुक्त’ रचनाएं दीं| लीजिए आज प्रस्तुत है उनकी बाद में लिखी गई एक रचना, जो दूरदर्शन पर हुए उनके अनुभव से संपन्न है-
भेड़िए आते थे पहले जंगल से बस्तियों में होता था रक्तस्राव फिर वे आते रहे सपनों में सपने खण्ड-खण्ड होते रहे।
अब वे टी०वी० पर आते हैं बजाते हैं गिटार पहनते हैं जीन गाते-चीख़ते हैं और अक्सर अँग्रेज़ी बोलते हैं
उन्हें देख बच्चे सहम जाते हैं पालतू कुत्ते, बिल्ली, खरगोश हो जाते हैं जड़।
भेड़िए कभी-कभी भाषण देते हैं भाषण में होता है नया ग्लोब भेड़िए ग्लोब से खेलते हैं भेड़िए रचते हैं ग्लोब पर नये देश भेड़िए कई प्राचीन देशों को चबा जाते हैं। लटकती है पैट्रोल खदानों की कुँजी दूसरे हाथ में सूखी रोटी
दर्शक तय नहीं कर पाते नमस्ते किसे दें पैट्रोल को या रोटी को। टी०वी० की ख़बरे भी गढ़ते हैं भेड़िए पढ़ते हैं उन्हें ख़ुद ही।
रक्तस्राव करती पिक्चर-ट्यूब में नहीं है बिजली का करण्ट दर्शक का लहू है।
एक बार फिर से मैं आज श्रेष्ठ कवि, गीतकार श्री सत्यनारायण जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ, जो पटना निवासी हैं, शत्रुघ्न सिन्हा जी के पडौसी और मित्र हैं और मुझको, उनको अपना मित्र कहने में गर्व का अनुभव होता है| यद्यपि 11 साल पहले एनटीपीसी से सेवानिवृत्त होने के और गोवा में आकर बस जाने के बाद, अब किसी से मेरा संपर्क नहीं रहा है|
लीजिए आज श्री सत्यनारायण जी का यह नवगीत प्रस्तुत है, जिसका कथ्य स्वतः स्पष्ट है –
ख़बरदार ‘राजा नंगा है‘… मत कहना
राजा नंगा है तो है इससे तुमको क्या सच को सच कहने पर होगी घोर समस्या सभी सयाने चुप हैं तुम भी चुप रहना
राजा दिन को रात कहे तो रात कहो तुम राजा को जो भाये वैसी बात करो तुम जैसे राखे राजा वैसे ही रहना राजा जो बोले समझो कानून वही है राजा उल्टी चाल चले तो वही सही है इस उल्टी गंगा में तुम उल्टा बहना
राजा की तुम अगर खिलाफ़त कभी करोगे चौराहे पर सरेआम बेमौत मरोगे अब तक सहते आये हो अब भी सहना ।
राजनैतिक विचार देने में अक्सर संकट शामिल होता है, लेकिन मुझे लगता है कि यह काम भी कभी-कभी करना चाहिए, भले ही वह धारा के विरुद्ध जाता हो|
एक फैशन सा बन गया है कि जिन कवियों की वाणी से आपातकाल के विरुद्ध एक शब्द नहीं निकल पाया, आज वे जी भरकर सरकार को गालियां भी देते हैं और यह भी कहते हैं कि बहुत दमन हो रहा है, नागरिक स्वतंत्रता पर बहुत बड़ा संकट मंडरा रहा है|
हमने एक वर्ष से अधिक समय तक दिल्ली की सीमाओं पर ‘किसान आंदोलन’ के नाम पर किया गया तमाशा देखा, जिसे विदेशों से स्पांसर किया गया था| आज उसकी खुराक प्रायोजक देश कनाडा को भी भुगतनी पड़ रही है| मजबूरी में प्रधान मंत्री जी को देशहित में वे कृषि कानून वापस लेने पड़े, जो कृषि विशेषज्ञों की राय के अनुसार किसानों, विशेष रूप से छोटे किसानों के हित में थे|
ऐसे में कवियों की भूमिका क्या हो सकती है, ये बिरादरी तो मार्क्सवादी दिव्य दृष्टि से युक्त है और ऐसा नहीं लगता कि ये वास्तव में देशहित को समझ भी सकते हैं| विभिन्न कदमों के आधार पर सरकार की आलोचना करनी ही चाहिए परंतु ये मार्क्सवादी बिरादरी तो यह मान बैठी है कि जनता ने मूर्खतावश गलत निर्णय लेकर यह सरकार बना दी है, जो कोई बड़ा घोटाला नहीं कर रही, पत्रकारों और कवियों को विश्व भ्रमण नहीं करा रही आदि-आदि|
हर दल के साथ कुछ अच्छाइयाँ और बुराइयाँ होती हैं, उनके समर्थक भी एक या दूसरी प्रकार से अतिवादी होते हैं और हैं|
ये बातें मैं कह सकता हूँ क्योंकि मुझे तो कोई चुनाव नहीं लड़ना है, ऐसे में मार्क्सवादी दिमाग़ों से उपजी कविताओं पर प्रतिक्रिया के रूप में कुछ लिखा है, आप चाहें तो इसे कविता मान सकते हैं|
इतनी घृणा संजोकर मन में, कविता कैसे लिखते हो तुम|
सत्ता का विरोध आखिर जब, बन जाए विरोध दल का ही, और सम्मिलित हो कवि इसमें किसी पक्ष का बन ध्वजवाही| तब जो हो, वह नारा होगा, उसको कविता कहते हो तुम|
राजनीति में तो होंगे ही, घोर समर्थक, घोर विरोधी, पर कवि की भूमिका नहीं है, किसी पक्ष में डट जाने की, घृणा बुराई से ही करिए, लोगों से क्यों करते हो तुम|
जनता चुनती है शासक को, कमियाँ सदा बता सकते तुम, पर जनमत को ही नकारकर अलग कहानी कहते हो तुम| कहां हुई गलतियां बताओ क्यों फतवे ही देते हो तुम|
आज काफी समय बाद मैं अपने एक अत्यंत प्रिय कवि स्वर्गीय किशन सरोज जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ, जिनका स्नेह पाने का भी अवसर मुझे मिला था|
यह रचना कवि सम्मेलनी रचनाओं से बिल्कुल अलग है और सामान्य जन के सपनों और अभिलाषाओं की बात करती है, जिनको राजनीति सिर्फ छलावा देती है| लीजिए प्रस्तुत है स्वर्गीय किशन सरोज जी की यह रचना-
युग हुए संघर्ष करते वर्ष को नव वर्ष करते और कब तक हम प्रतीक्षारत रहें ?
धैर्य की अंधी गुफ़ा में प्रतिध्वनित हो लौट आईं कल्पवृक्षी प्रार्थनाएँ, श्वेत-वसना राज सत्ता के महल में गुम हुईं जन्मों-जली सम्भावनाएँ|
अब निराशा के नगर में पाशविक अंधियार-घर में और कब तक दीप शरणागत रहें ?
मुठ्ठियाँ भींचे हुए झण्डे उठाए भीड़ बनकर रह गए हम राजपथ की, रक्त से बुझती मशालों को जलाकर, आहटें लेते रहे हम सूर्य-रथ की
थक गए नारे लगाते व्यर्थ ही ताली बजाते और कब तक स्वप्न क्षत-विक्षत रहें ?
हारकर पहुँचे इसी परिणाम पर हम, धर्म कोई भी न रोटी से बड़ा है, काव्य-सर्जन हो कि भीषण युद्ध कोई आदमी हर बार ख़ुद से ही लड़ा है
देह में पारा मचलता पर न कोई बाण चलता और कब तक धनुर्धर जड़वत रहें ?
बंगाल के चुनाव परिणामों को लेकर कुछ कहने का मन हो रहा है| कल देखा कि राजदीप सरदेसाई बहुत दिनों के बाद, अपनी दीदी के बंगाल चुनावों में विजयी होने के उपलक्ष्य में प्रसन्नचित्त होकर उनका इंटरव्यू ले रहे थे| बहुत दिनों के बाद ऐसा मौका आता है जब राजदीप, बरखा दत्त, रवीश कुमार, विनोद दुआ जैसे गए जमाने के लाडले पत्रकारों को अपनी खुशी ज़ाहिर करने का मौका मिलता है|
सचमुच मोदी जी ने बहुत सारे लोगों की दुकान पर ताला लगा दिया है| बहुत से नेता, जैसे – यशवंत सिन्हा, शरद यादव, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा आदि-आदि तो कुर्सी न मिलने पर यह सोचकर बाहर गए थे कि अभी विपक्ष को एक करेंगे और मोदी जी को बाहर करके फिर से कोई अच्छी सी गद्दी पा जाएंगे! कुछ नहीं हुआ, तब ऐसा कोई मौका आने से, इनको लगता है कि शायद अंतिम यात्रा से पहले इनको, कुछ समय कुर्सी मैया की गोद में सोने का मौका मिल जाए|
पता नहीं क्यों ऐसे में बाबा नागार्जुन जी की ‘अकाल के बाद’ कविता याद आती है, जिसमें बताया गया है कि अकाल के बाद जब घर में अनाज के दाने आते हैं, तब घर से जुड़े प्राणियों में कैसे फिर से जान आ जाती है, जैसे चूल्हा- चक्की से होने वाले उत्पादन के आधार पर- छिपकलियाँ, चूहे, कानी कुतिया और कौए भी, सब सक्रिय हो जाते हैं |
और यहाँ जबरन लगभग रिटायर हो चुके राजनेता और राजदीप जैसे स्तरहीन पत्रकार, जो आंदोलन के दौरान स्पष्ट रूप से दुर्घटनावश हुई मृत्यु के मामले में भी संदेह पैदा करना चाहते हैं, नए सपने देखने लगते हैं|
अभी देखा जाए तो 5 राज्यों के चुनाव में हुआ क्या है? किसने क्या खोया है? कांग्रेस लगातार अस्तित्वहीन होती जा रही है| मेरा खयाल है कि भाजपा ने हर जगह अपनी स्थिति में सुधार किया है| सबसे ज्यादा सुधार तो बंगाल में ही हुआ है, जहां भाजपा पिछली विधान सभा में 3 सीटों से बढ़कर 77 पर आ गई है| ये कितने प्रतिशत बढ़ोतरी है जी|
हाँ उन्होंने सपने कुछ ज्यादा ही ऊंचे देखे थे, तो सपने तो ऊंचे ही देखने चाहिएं ना! और इसके लिए मेहनत भी बहुत की गई, शायद इसीलिए वे इतना आगे भी बढ़ पाए| लेकिन ये महान पत्रकार और राजनेता इस बारे में तो बात ही नहीं करते कि बंगाल में कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों का क्या हुआ? कहाँ है अब उनकी दुकान?
भाजपा के हिंदुत्ववादी कट्टर समर्थकों की भाषा मुझे बिलकुल पसंद नहीं है, लेकिन शायद यह उनकी रणनीति है उनके विरुद्ध, जिनका पूरा चुनावी गणित इस बात पर निर्भर है कि एक समुदाय विशेष के वोट कहीं बंट न जाएँ, और वास्तव में यदि बंगाल में ओवैसी और कम्युनिस्ट-कांग्रेस कुछ वोट ले पाते तो शायद परिणाम वैसा ही होता, जैसा भाजपा वाले सपना देख रहे थे|
मैं ऐसा नहीं मान पाता कि जो भी सत्ता में है वो खराब है और जो सत्ता से बाहर हो गया, वो स्वतः पवित्र हो गया| मैं मानता हूँ कि सरकारों के निष्पादन का विश्लेषण, हर मामले में, गुण-दोष के आधार पर किया जाना चाहिए और इस दृष्टि से मैं मानता हूँ कि मोदी सरकार का निष्पादन पहले की सरकार के मुक़ाबले काफी अच्छा है|
एक बात और बहुत स्पष्ट है कि जहां दिल्ली में आए परिणामों के लिए कांग्रेस द्वारा की गई आत्महत्या की बहुत बड़ी भूमिका थी, वहीं बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्ट दोनों पार्टियों ने आत्महत्या करके इस परिणाम को संभव बनाया| यदि ये पार्टियाँ ऐसा ही करते रहने वाली हैं, तो भविष्य की राजनीति के निर्माण में इनकी इस शहादत की महान भूमिका होगी|
ऐसे ही मन हुआ कि हाल ही के चुनाव परिणामों पर अपनी प्रतिक्रिया दे दूँ, बाकी तो जनता मालिक है|
भारतवर्ष के आबादी की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रहे श्रीमान अखिलेश यादव ने आज एक बयान दे डाला| अपने इस बयान के माध्यम से श्रीमान यादव जी ने यह बता दिया की खानदानी विरासत के दम पर भले ही श्रीमान जी इतने बड़े राज्य के मुख्य मंत्री तक रह चुके हों, परंतु वे भीतर से कितने बौने हैं, यह उनके इस बयान से ज़ाहिर होता है|
वैसे आज का दिन एक ऐतिहासिक दिन है, जबकि देश में बनी दो-दो कोरोना वेक्सीन्स को आपातकालीन उपयोग की अनुमति मिल गई है, और आशा की जाती है की यह कोरोना को देश से समाप्त करने की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि साबित होगी|
परंतु अखिलेश बबुआ ने कहा है कि ये ‘बीजेपी’ की वेक्सीन है और वो इसको नहीं लगवाएंगे| मुझे लगता है कि किसी राजनेता द्वारा इससे घटिया बयान नहीं दिया जा सकता!
बीजेपी पार्टी से आपकी राजनैतिक लड़ाई है, वह आप लड़ते रहिए परंतु यह वेक्सीन देश के वैज्ञानिकों ने अथक परिश्रम से तैयार की हैं| सरकार की इसमें अगर कोई भूमिका है तो वह फंड उपलब्ध कराने और वैज्ञानिकों की टीम को प्रोत्साहित करने तक ही सीमित हो सकती है| इस प्रकार अखिलेश बाबू ने अपने इस द्वेष और मूर्खता से भरे बयान के द्वारा हमारे वैज्ञानिकों का अपमान किया है, जिसके लिए उनकी घोर निंदा की जानी चाहिए|
वैसे भी मोदी जी के सत्तारूढ़ होने के बाद बेचारे विरोधी नेताओं के पास कोई काम नहीं रहा गया है, वे किसानों को भ्रमित कर रहे हैं और जहां भी संभव हो दुष्प्रचार कर रहे हैं| उसी कानून की प्रतियाँ फाड़ रहे हैं, जिसे वो पहले ‘नोटिफ़ाई’ कर चुके हैं| आशा है कभी तो ऊपर वाला उनकी सुनेगा!
परंतु अखिलेश जी, परिस्थिति कैसी भी हो, इतना नीचे उतरना तो ठीक नहीं है| यह लोगों की जान बचाने का मामला है और इस मामले में ओछी राजनीति ठीक नहीं है|