आज मैं मुशायरों और कवि सम्मेलनों में ख्याति अर्जित करने वाली शायरा- सुश्री अंजुम रहबर जी की एक गजल शेयर कर रहा हूँ| लीजिए प्रस्तुत है यह सुंदर सी गजल-
मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था,
वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था|
मैं उस को देखने को तरसती ही रह गई,
जिस शख़्स की हथेली पे मेरा नसीब था|
बस्ती के सारे लोग ही आतिश-परस्त थे,
घर जल रहा था और समुंदर क़रीब था|
मरियम कहाँ तलाश करे अपने ख़ून को,
हर शख़्स के गले में निशान-ए-सलीब था|
दफ़ना दिया गया मुझे चाँदी की क़ब्र में,
मैं जिसको चाहती थी वो लड़का ग़रीब था|
आज के लिए इतना ही|
नमस्कार|
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