दिल भी जलाया मैंने!!

आज मुकेश जी का गाया एक गीत याद आ रहा है, यह  गीत उन्होंने फिल्म- ‘दिल भी तेरा, हम भी तेरे’ में धर्मेंद्र जी  के लिए गाया है, संगीतकार हैं- कल्याणजी आनंदजी, जो उन संगीतकारों में से एक हैं, जिन्होंने मुकेश जी की अनूठी आवाज़ का भरपूर इस्तेमाल किया है। इसके गीतकार हैं- शमीम जयपुरी।

मैं कह नहीं सकता कि इस गीत में क्या कोई अनूठी बात है, लेकिन मुकेश जी की आवाज़ पाकर यह गीत जैसे अमर हो गया है। और जो इसके बोल हैं, उनके अनुरूप, शुरुआत में ऐसा लगता है कि जैसे आवाज़ जंगल में गूंज रही हो, तनहाई जैसे असीम लगती है।

अब ज्यादा कुछ नहीं बोलते हुए, इस गीत के बोल शेयर कर लेता हूँ, मौका लगे तो इस गीत को एक बार फिर मुकेश जी की आवाज़ में सुनकर, यादें ताज़ा कर लीजिए-

मुझको इस रात की तनहाई में, आवाज़ न दो,

जिसकी आवाज़ रुला दे, मुझे वो साज़ न दो।

रोशनी हो न सकी दिल भी जलाया मैंने,

तुमको भूला ही नहीं लाख भुलाया मैंने,

मैं परेशां हूँ, मुझे और परेशां न करो।

आवाज़ न दो॥

इस क़दर जल्द किया मुझसे किनारा तुमने,

कोई भटकेगा अकेला ये न सोचा तुमने,

छुप गए हो तो मुझे याद भी आया न करो।

आवाज़ न दो।।

आज के लिए इतना ही।

नमस्कार।

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हमसे ख़ुदाई भी खफ़ा हो जाए!

बहुत दिनों से फिल्मों से जुड़ी कोई रचना मैंने शेयर नहीं की है, केवल अन्य साहित्यिक रचनाएं शेयर करता रहा हूँ| आज से सोचता हूँ कि कुछ दिन फिल्मों से जुड़ी कुछ रचनाएं शेयर करूंगा| आज शेयर कर रहा हूँ साहिर लुधियानवी जी के लिखे एक फिल्मी गीत से, जो पुरानी फिल्म- ‘लैला मजनू’ में फिल्माया गया था, और मोहम्मद रफी साहब ने इस गीत को गाया था|

लीजिए आज प्रस्तुत हैं इस गीत के बोल-

अब अगर हमसे ख़ुदाई भी खफ़ा हो जाए
गैर-मुमकिन है कि दिल दिल से जुदा हो जाए
जिस्म मिट जाए कि अब जान फ़ना हो जाए
गैर-मुमकिन है…

जिस घड़ी मुझको पुकारेंगी तुम्हारी बाँहें
रोक पाएँगी न सहरा की सुलगती राहें
चाहे हर साँस झुलसने की सज़ा हो जाए
गैर-मुमकिन है…

लाख ज़ंजीरों में जकड़ें ये ज़माने वाले
तोड़ कर बन्द निकल आएँगे आने वाले
शर्त इतनी है कि तू जलवा-नुमाँ हो जाए
गैर-मुमकिन है…

ज़लज़ले आएँ गरज़दार घटाएँ घेरें
खंदकें राह में हों तेज़ हवाएँ घेरें
चाहे दुनिया में क़यामत ही बपा हो जाए
गैर-मुमकिन है…

(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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इस रंग बदलती दुनिया में!

आज फिर से मैं हिन्दी फिल्म जगत के एक और लोकप्रिय गीतकार हसरत जयपुरी जी का लिखा एक गीत शेयर कर रहा हूँ| वैसे हसरत जयपुरी जी भी मेरे प्रिय नायक, निर्माता-निर्देशक राजकपूर जी की टीम में शामिल थे और अक्सर उनकी फिल्मों में शैलेन्द्र जी और हसरत जयपुरी जी के गीत शामिल होते थे|
आज प्रस्तुत है हसरत जयपुरी जी का लिखा एक फिल्मी गीत, यह गीत पुरानी फिल्म- राजकुमार के लिए रफी साहब ने शंकर जयकिशन की सुप्रसिद्ध जोड़ी के संगीत निर्देशन में गाया था, लीजिए प्रस्तुत हैं इस गीत के बोल –

इस रंग बदलती दुनिया में
इंसान की नीयत ठीक नहीं
निकला न करो तुम सज-धजकर
ईमान की नीयत ठीक नहीं, इस…

ये दिल है बड़ा ही दीवाना
छेड़ा न करो इस पागल को
तुमसे न शरारत कर बैठे
नादान की नीयत ठीक नहीं, इस…

काँधे से हटा लो सर अपना
ये प्यार मुहब्बत रहने दो
कश्ती को सम्भालो मौजों में
तूफ़ान की नीयत ठीक नहीं, इस…

मैं कैसे खुदा हाफ़िज़ कह दूँ
मुझको तो किसी का यकीन नहीं
छुप जाओ हमारी आँखों में
भगवान की नीयत ठीक नहीं,
इस रंग बदलती दुनिया में


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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याद तुझको दिलाएं तेरा पैमां जाना!

आज प्रस्तुत है एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट|

भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू के जो सर्वश्रेष्ठ शायर हुए हैं, उनमें से एक रहे हैं जनाब अहमद फराज़, वैसे तो श्रेष्ठ कवियों/शायरों के लिए सीमाओं का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन यह बता दूँ कि फराज़ साहब पाकिस्तान में थे और उनमें इतना साहस था कि उन्होंने वहाँ मिलिटरी शासन का विरोध किया था|
फराज़ साहब की अनेक गज़लें भारत में भी लोगों की ज़ुबान पर रहती हैं| इस ग़ज़ल के कुछ शेर भी गुलाम अली साहब ने गाये हैं| वैसे मैं भी ग़ज़ल के कुछ चुने हुए शेर ही दे रहा हूँ, जिनमें थोड़ी अधिक कठिन उर्दू है, उनको मैंने छोड़ दिया है|

लीजिए प्रस्तुत है यह प्यारी सी ग़ज़ल–

अब के तज्दीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जाना,
याद क्या तुझको दिलाएँ तेरा पैमाँ जाना|

यूँ ही मौसम की अदा देख के याद आया है,
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इन्सां जाना|

ज़िन्दगी तेरी अता थी सो तेरे नाम की है,
हमने जैसे भी बसर की तेरा एहसां जाना|

दिल ये कहता है कि शायद हो फ़सुर्दा तू भी,
दिल की क्या बात करें दिल तो है नादां जाना|

अव्वल-अव्वल की मुहब्बत के नशे याद तो कर,
बे-पिये भी तेरा चेहरा था गुलिस्ताँ जाना|

मुद्दतों से यही आलम न तवक़्क़ो न उम्मीद,
दिल पुकारे ही चला जाता है जाना जाना|

हम भी क्या सादा थे हमने भी समझ रखा था,
ग़म-ए-दौराँ से जुदा है, ग़म-ए-जाना जाना|


हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है,
हर कोई अपने ही साये से हिरासाँ जानाँ|

जिसको देखो वही ज़न्जीर-ब-पा लगता है,
शहर का शहर हुआ दाख़िल-ए-ज़िन्दाँ जाना|

अब तेरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आये,
और से और हुआ दर्द का उन्वाँ जाना|

हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे,
हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जाना|



आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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तेरे शहर के लोग!

आज मोहसिन नक़वी जी की लिखी एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| इस ग़ज़ल को जगजीत सिंह जी ने गाया था| कई बार यही खयाल आता है कि श्री जगजीत सिंह जी जैसे लोकप्रिय गायक यदि नहीं होते तो इन महान शायरों की शायरी हम सब तक कैसे पहुँच पाती?

एक प्रसंग याद या रहा है मेरे प्रिय गायक मुकेश जी किसी नगर में शो कर रहे थे, उनसे एक गीत की फरमाइश की गई, मुकेश जी जानते थे कि उस गीत को लिखने वाले शायर उसी शहर में रहते हैं जिनको वहाँ की जनता नहीं जानती थी, मुकेश जी ने उन शायर महोदय को बुलाया और जनता को यह बताते हुए कि यह गीत इनका ही लिखा हुआ है, उसको गाया| इस तरह उन शायर महोदय को उनके शहर के लोगों ने जान लिया|

लीजिए आज प्रस्तुत हैं, जगजीत सिंह जी द्वारा गाई गयी इस ग़ज़ल के बोल:

तुझसे मिलने की सज़ा देंगे तेरे शहर के लोग
ये वफ़ाओं का सिला देंगे तेरे शहर के लोग|

क्या ख़बर थी तेरे मिलने पे क़यामत होगी
मुझको दीवाना बना देंगे तेरे शहर के लोग,
मुझको दीवाना बना देंगे तेरे शहर के लोग
तुझसे मिलने की सज़ा देंगे तेरे शहर के लोग|

तेरी नज़रों से गिराने के लिये जान-ए-हयात
मुझको मुजरिम भी बना देंगे तेरे शहर के लोग,
मुझको मुजरिम बना देंगे तेरे शहर के लोग|
तुझसे मिलने की सज़ा देंगे तेरे शहर के लोग|


कह के दीवाना मुझे मार रहे हैं पत्थर,
कह के दीवाना मुझे मार रहे हैं पत्थर,
और क्या इसके सिवा देंगे तेरे शहर के लोग|
तुझसे मिलने की सज़ा देंगे तेरे शहर के लोग|
ये वफ़ाओं का सिला देंगे तेरे शहर के लोग|


आज के लिए इतना ही,
नमस्कार
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बस तेरा नाम ही लिखा देखा!

आज स्वर्गीय सुदर्शन फ़ाकिर जी की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| सुदर्शन फ़ाकिर जी ने कुछ बहुत सुंदर रचनाएं हमें दी हैं| जगजीत सिंह जी और अन्य अनेक गायकों ने फ़ाकिर जी की रचनाओं को गाया है|

लीजिए आज प्रस्तुत है सुदर्शन फ़ाकिर जी की एक बहुत लोकप्रिय और प्रभावशाली ग़ज़ल, इस ग़ज़ल को भी जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की जोड़ी ने गाया था–

दिल की दीवार-ओ-दर पे क्या देखा,
बस तेरा नाम ही लिखा देखा|

तेरी आँखों में हमने क्या देखा,
कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा|

अपनी सूरत लगी पराई सी,
जब कभी हमने आईना देखा|

हाय अंदाज़ तेरे रुकने का,
वक़्त को भी रुका रुका देखा|

तेरे जाने में और आने में,
हमने सदियों का फ़ासला देखा|

फिर न आया ख़याल जन्नत का,
जब तेरे घर का रास्ता देखा|


आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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वो ज़माना याद है!

हसरत मोहानी जी की एक ग़ज़ल के कुछ शेर आज शेयर कर रहा हूँ| इस ग़ज़ल के कुछ शेर ग़ुलाम अली जी ने भी गाए थे| ग़ुलाम अली साहब की आवाज़ में इस ग़ज़ल का फिल्म- ‘निकाह’ में बड़ा खूबसूरत इस्तेमाल किया गया है|

लीजिए आज हसरत मोहानी जी की इस ग़ज़ल का आनंद लीजिए-


चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है|

बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़,
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है|

तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा,
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है|

खेंच लेना वोह मेरा परदे का कोना दफ़अतन,
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है|

तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़,
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है|


ग़ैर की नज़रों से बच कर सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़,
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है|

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़,
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है|

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए,
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है|

देखना मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से,
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है|

चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह,
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है|


आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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ओ जाने वाले हो सके तो!

कल हमारे प्रिय गायक, महान कलाकार और इंसान मुकेश चंद्र माथुर जी का जन्म दिन है| जिन्हें हम प्रेम से सिर्फ ‘मुकेश’ नाम से पुकारते हैं|

उनकी स्मृति में प्रस्तुत आज का यह गीत फिल्म- ‘बंदिनी’ से है, जिसे लिखा था शैलेन्द्र जी ने और इसका संगीत दिया था सचिन देव बर्मन जी ने|

मुकेश जी के गाए गीत मुझ जैसे बहुत से लोगों को जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं|

आइए आज उस महान गायक की स्मृति में उनका गाया यह गीत दोहराते हैं-


ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
ये घाट तू ये बाट कहीं भूल न जाना|


बचपन के तेरे मीत तेरे संग के सहारे,
ढूंढेंगे तुझे गली-गली सब ये ग़म के मारे|
पूछेगी हर निगाह कल तेरा ठिकाना|
ओ जाने वाले —

है तेरा वहां कौन सभी लोग हैं पराए,
परदेश की गर्दिश में कहीं, तू भी खो न जाए|
कांटों भरी डगर है तू दामन बचाना|
ओ जाने वाले—


दे देके ये आवाज कोई हर घड़ी बुलाए,
फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए,
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना|
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना|



आज के लिए इतना ही,
नमस्कार
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दिल सोगवार आज भी है!

आज एक गीत शेयर कर रहा हूँ, जिसकी विशेषता है गायक भूपिंदर सिंह की गूँजती आवाज| वैसे उन्होंने यह गीत 1985 में रिलीज़ हुई फिल्म- ऐतबार के लिए, भप्पी लाहिड़ी जी के संगीत निर्देशन में, आशा भोंसले जी के साथ मिलकर गाया है| इसके गीतकार हैं- हसन कमाल जी|


लीजिए आज प्रस्तुत है ये गीत-

किसी नज़र को तेरा
इंतज़ार आज भी है,

कहाँ हो तुम के
ये दिल बेकरार आज भी है|
किसी नज़र को तेरा
इंतज़ार आज भी है|
वो वादियाँ वो फिजायें के
हम मिले थे जहां,
मेरी वफ़ा का वहीं
पर मजार आज भी है|
किसी नज़र को तेरा
इंतज़ार आज भी है|

न जाने देख के उनको ये
ये क्यों हुआ एहसास,
के मेरे दिल पे उन्हें
इख़्तियार आज भी है|
किसी नज़र को तेरा
इंतज़ार आज भी है|

वो प्यार जिसके लिए
हमने छोड़ दी दुनिया,
वफ़ा की राह में घायल
वो प्यार आज भी है|
किसी नज़र को तेरा
इंतज़ार आज भी है|

यकीं नहीं हैं मगर
आज भी ये लगता है,
मेरी तलाश में शायद
बहार आज भी है|
किसी नज़र को तेरा
इंतज़ार आज भी है|

न पूछ कितने मोहब्बत में
ज़ख्म खाए हैं,
के जिनको सोच के दिल
सोगवार आज भी है|

वो प्यार जिस के लिए
हमने छोड़ दी दुनिया,
वफ़ा की राह में घायल
वो प्यार आज भी है|

किसी नज़र को तेरा
इंतज़ार आज भी है|
कहा हो तुम के ये
दिल बेकरार आज भी है|

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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यूं उठे आह उस गली से हम!

आज फिर से प्रस्तुत है, एक और पुरानी ब्लॉग पोस्ट-

एक किस्सा याद आ रहा है, एक सज्जन थे, नशे के शौकीन थे, रात में सोते समय भी सिगरेट में नशा मिलाकर पीते थे, एक बार सुट्टे मारते-मारते सो गए, और बाद में अचानक उन्हें धुआं सा महसूस हुआ, कुछ देर तो सोचते रहे कि कहाँ से आ रहा है, बाद में पता चला कि उनका ही कंबल जल रहा था, खैर घर के लोगों ने जल्दी ही उस पर काबू पा लिया और ज्यादा नुक़सान नहीं हुआ।


मुझे मीर तक़ी ‘मीर’ जी की एक गज़ल याद आ रही है, जिसे मेहंदी हसन साहब ने अपनी खूबसूरत आवाज़ में गाया है। यहाँ भी एक नशा है, इश्क़ का नशा, जिसमें जब आग लगती है तो शुरू में पता ही नहीं चलता कि धुआं कहाँ से उठ रहा है।

ऐसा लगता है कि किसी दिलजले की आह, शोला बनकर आसमान में ऊपर उठ रही है। और यह भी कि जो इंसान उस एक ‘दर’ से उठ गया, तो फिर उसके लिए कहीं, कोई ठिकाना नहीं बचता। और फिर शायर जैसे अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि हम उस गली से आज ऐसे उठे, जैसे कोई दुनिया से उठ जाता है।

अब ज्यादा क्या बोलना, वह गज़ल ही पढ़ लेते हैं ना-

देख तो दिल कि जां से उठता है,
ये धुआं सा कहाँ से उठता है।

गोर किस दिलजले की है ये फलक़,
शोला एक सुबह यां से उठता है।

बैठने कौन दे फिर उसको,
जो तेरे आस्तां से उठता है।

यूं उठे आह उस गली से हम,
जैसे कोई जहाँ से उठता है।


मीर साहब ने दो शेर और भी लिखे हैं, लेकिन उनकी भाषा इतनी सरल नहीं है, मैं यहाँ उतनी ही गज़ल दे रहा हूँ, जितनी मेंहदी हसन साहब ने गाई है।

नमस्कार
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