आज हिन्दी काव्य मंचों के एक अत्यंत लोकप्रिय गीतकार रहे स्वर्गीय गोपाल सिंह ‘नेपाली’ जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| नेपाली जी प्रेम और ओज दोनों प्रकार के गीतों के लिए जाने जाते थे|
लीजिए प्रस्तुत है नेपाली जी यह गीत-
तन का दिया, प्राण की बाती, दीपक जलता रहा रात-भर ।
दु:ख की घनी बनी अँधियारी, सुख के टिमटिम दूर सितारे, उठती रही पीर की बदली, मन के पंछी उड़-उड़ हारे ।
बची रही प्रिय की आँखों से, मेरी कुटिया एक किनारे, मिलता रहा स्नेह रस थोड़ा, दीपक जलता रहा रात-भर ।
दुनिया देखी भी अनदेखी, नगर न जाना, डगर न जानी; रंग देखा, रूप न देखा, केवल बोली ही पहचानी,
कोई भी तो साथ नहीं था, साथी था ऑंखों का पानी, सूनी डगर सितारे टिमटिम, पंथी चलता रहा रात-भर ।
अगणित तारों के प्रकाश में, मैं अपने पथ पर चलता था, मैंने देखा, गगन-गली में, चाँद-सितारों को छलता था ।
आँधी में, तूफ़ानों में भी, प्राण-दीप मेरा जलता था, कोई छली खेल में मेरी, दिशा बदलता रहा रात-भर ।
दुष्यंत कुमार जी हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यिक कवि थे और आपात्काल के दौरान जब उन्होंने एक के बाद एक विद्रोह के स्वरों को गुंजाने वाली ग़ज़लें लिखीं, तब वे जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए| मुझे याद है उस समय कमलेश्वर जी साहित्यिक पत्रिका – ‘सारिका’ में निरंतर ये ग़ज़लें प्रकाशित करते थे और बाद में इनको ‘साये में धूप’ नामक संकलन में सम्मिलित किया गया|
लीजिए प्रस्तुत है दुष्यंत कुमार जी की यह ग़ज़ल-
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं, कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं|
इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो, धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं|
बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है, ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं|
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है, पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं|
आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर, आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं|
सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत, हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं|
ऐसे बहुत से लोग होते हैं जिनको अतीत में रहना बहुत अच्छा लगता है और अक्सर वे वर्तमान का सामना करने से बचने के लिए भी अतीत में डेरा डाल लेते हैं, क्योंकि वहाँ वे अपने आपको ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं|
मेरे साथ ऐसा तो नहीं है, परंतु चाहे वह कविता की बात हो या फिल्मों की, मुझे अतीत की कृतियों से जुड़ने में बहुत आसानी लगती है| आज जो सृजन हो रहा है, उसके बारे में भविष्य में लोग बात करेंगे, या शायद आज भी करते होंगे, जैसे साहिर जी ने कहा है- ‘कल और आएंगे, नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले!’
खैर अब ज्यादा लंबा न खींचते हुए मैं कह सकता हूँ, कि मैं ‘अपने ज़माने के एक कवि’ की कविता शेयर कर रहा हूँ, जो मंचों पर धूम मचाते थे, ये थे स्वर्गीय शिशुपाल सिंह ‘निर्धन’ जी| उनके एक गीत की पंक्तियाँ मुझे अक्सर याद आती हैं- ‘एक पुराने दुख ने पूछा, क्या तुम अभी वहीं रहते हो, उत्तर दिया चले मत आना, मैंने वो घर बदल लिया है’|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय शिशुपाल सिंह ‘निर्धन’ जी की यह रचना-
न दे पाओ अगर तुम साथ,मेरी राह मत रोको बिना श्रम के कभी विश्राम का पौधा नहीं फलता, यहाँ तुम प्यार की बातें न छेड़ो,मन बहकता है न कोई भी सुमन देखो,यहाँ सब दिन महकता है| यहाँ पर तृप्ति ने कब किस अधर की प्यास चूमी है उमर लेकर मुझे अब तक हजारों घाट घूमी है| भले ही साथ मत रहना,थकन की बात मत कहना न दो वरदान चलने का,गलत संकेत मत देना, कभी पतझार के मारे कुसुम खिल भी निकलते हैं मगर संकेत के मारे पथिक को घर नहीं मिलता| बिना श्रम के कभी विश्राम का पौधा नहीं फलता| न दे पाओ अगर तुम साथ...
मुझे है चाव चलने का डगर फिर मात क्या देगी गगन के बादलों की छाँव मेरा साथ क्या देगी, अधिक ठहरो जहां,स्वागत वहां सच्चा नहीं होता बहुत रुकना पराये गाँव मे अच्छा नहीं होता| भले गति-दान मत देना,नई हर ठान मत देना जो मन छोटा करे मेरा,मुझे वो गान मत देना| बुझे दीपक समय पर फिर कभी जल भी निकलते हैं मगर मन का बुझा दीपक कभी आगे नहीं जलता| बिना श्रम के कभी विश्राम का पौधा नहीं फलता| न दे पाओ अगर तुम साथ…
जनम के वक्ष पर ऐसी लगी कोई चोट गहरी है लगन की अब सफलता के चरण पर आँख ठहरी है, यहाँ भटकी हुई हर ज़िन्दगी ही दाब खाती है क्षमा केवल यहाँ अपराध के सिक्के कमाती है| चुभन से मेल है मेरा,डगर के शूल मत बीनो हवन तो खेल है मेरा,हटो विश्वास मत छीनो| चरण हारे हुए तो फिर कभी चल भी निकलते हैं मगर हारा हुआ साथी कभी आगे नहीं चलता| बिना श्रम के कभी विश्राम का पौधा नहीं फलता| न दे पाओ अगर तुम साथ…
आज एक बार फिर से मैं अपने एक अत्यंत प्रिय कवि रहे स्वर्गीय किशन सरोज जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| किशन जी को अनेक बार सुनने और अनेक बार उनसे मिलने का अवसर मिला, ये मेरा सौभाग्य था, अत्यंत सरल, सौम्य और शालीन व्यक्ति थे|
आज की रचना, में किशन सरोज जी ने जीवन की मृगतृष्णा को बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है-
सैलानी नदिया के संग–संग
हार गये वन चलते–चलते|
फिर आईं पातियां गुलाबों की
फिर नींदें हो गईं पराई,
भूल सही, पर कब तक कौन करे
अपनी ही देह से लड़ाई|
साधा जब जूही ने पुष्प-बान
थम गया पवन चलते–चलते|
राजपुरुष हो या हो वैरागी
सबके मन कोई कस्तूरी,
मदिरालय हो अथवा हो काशी
हर तीरथ-यात्रा मजबूरी|
अपने ही पाँव, गंध अपनी ही,
थक गये हिरन चलते–चलते|
आज के लिए इतना ही
नमस्कार
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आज उर्दू के उस्ताद शायर रहे ज़नाब फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| एक खास बात ये है की हिन्दी के प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन जी भी अंग्रेजी के प्रोफेसर थे और ज़नाब फ़िराक़ गोरखपुरी साहब भी|
लीजिए आज प्रस्तुत है, फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ये खूबसूरत ग़ज़ल-
सितारों से उलझता जा रहा हूँ, शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ|
तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ, जहाँ को भी मैं समझा रहा हूँ|
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है, गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ|
अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट, ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ|
हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर, क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ|
ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत, तेरे हाथों मैं लुटता जा रहा हूँ|
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का, तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ|
भरम तेरे सितम का खुल चुका है, मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ|
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस, कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ|
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ|
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है, तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ|
ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप, “फ़िराक़” अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ|
ब्लॉग लेखन हो या जो भी गतिविधि हो, अक्सर हम वह चीज़ें, वे रचनाएँ अधिक शेयर करते हैं, जो ‘हमारे समय’ की होती हैं| जैसे फिल्मों की बात होती है तो मुझे वो ज़माना अधिक याद आता है जिसमें दिलीप कुमार जी, देव आनंद और मेरे प्रिय राज कपूर जी थे, गायकों में मुकेश जी, रफी साहब और किशोर कुमार आदि-आदि होते थे, गायिकाओं में तो लता जी और आशा जी थी हीं|
कविता के मामले में तो वह कवि सम्मेलनों का ज़माना याद आता है, जब दिल्ली में प्रतिवर्ष दो बार लाल किले पर विराट कवि सम्मेलन होते थे, राष्ट्रीय पर्वों- स्वाधीनता दिवस और गणतन्त्र दिवस के अवसर पर| अधिकांश कवि जिनकी रचनाएँ मैं शेयर करता हूँ, वे कवि सम्मेलनों के माध्यम से लोकप्रिय हुए थे|
लेकिन कुछ कवि मंच पर कम ही आते थे और अपनी रचनाएँ पढ़े जाने से लोगों तक पहुँचते थे| आज के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी भी ऐसे ही थे| लीजिए प्रस्तुत है सर्वेश्वर जी की एक कविता-
अक्सर एक गन्ध मेरे पास से गुज़र जाती है, अक्सर एक नदी मेरे सामने भर जाती है, अक्सर एक नाव आकर तट से टकराती है, अक्सर एक लीक दूर पार से बुलाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहीं पर बैठ जाता हूँ, अक्सर एक प्रतिमा धूल में बन जाती है ।
अक्सर चाँद जेब में पड़ा हुआ मिलता है, सूरज को गिलहरी पेड़ पर बैठी खाती है, अक्सर दुनिया मटर का दाना हो जाती है, एक हथेली पर पूरी बस जाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से उठ जाता हूँ, अक्सर रात चींटी-सी रेंगती हुई आती है ।
अक्सर एक हँसी ठंडी हवा-सी चलती है, अक्सर एक दृष्टि कनटोप-सा लगाती है, अक्सर एक बात पर्वत-सी खड़ी होती है, अक्सर एक ख़ामोशी मुझे कपड़े पहनाती है । मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से चल पड़ता हूँ, अक्सर एक व्यथा यात्रा बन जाती है ।
स्वर्गीय रमेश रंजक जी मेरे प्रिय कवि रहे हैं, उनका स्नेह भी मिला मुझे और एक विशेषता थी उनमें कि यदि अच्छी रचना उनके शत्रु की भी हो तो उसकी तारीफ़ अवश्य करते थे| कम शब्दों में कैसे बड़ी बात कही जाए, यह उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है|
आज मैं रंजक जी का यह नवगीत शेयर कर रहा हूँ-
मेरा बदन हो गया पत्थर का|
‘सोनजुही-से’ हाथ तुम्हारे लकड़ी के हो गये, हारे दिन फीके हो गये, नक्शा बदल गया सारे घर का|
भिड़ने लगे जोर से दरवाज़े, छत, आँगन, दालान सभी लगते आधे-आधे, ख़ारीपन भर गया समुन्दर का|
सिमट गयी हैं कछुए-सी बातें, दिन में दो दिन हुए रात में चार-चार रातें, तेवर बदला अक्षर-अक्षर का|
स्वर्गीय कन्हैयालाल नंदन जी के हिन्दी कविता के एक प्रमुख हस्ताक्षर रहे हैं| वे बच्चों की पत्रिका पराग के संपादक भी रहे थे और अपने साहित्य सृजन के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किए गए|
आज मैं नंदन जी की यह रचना शेयर कर रहा हूँ-
रेशमी कंगूरों पर नर्म धूप सोयी। मौसम ने नस-नस में नागफनी बोयी! दोषों के खाते में कैसे लिख डालें गर अंगारे याचक बन पाँखुरियाँ माँग गए
कच्चे रंगों से तसवीर बना डाली, हल्की बौछार पड़ी रंग हुए खाली। कितनी है दूरी, पर, जाने क्या मजबूरी कि टीस के सफ़र की कई सीढ़ियाँ, फलाँग गए।
खंड-खंड अपनापन टुकड़ों में जीना।
फटे हुए कुर्ते-सा रोज़-रोज़ सीना। संबंधों के सूनेपन की अरगनियों में जगह-जगह अपना ही बौनापन टाँग गए!
स्वर्गीय डॉ राही मासूम रज़ा साहब हिन्दी-उर्दू साहित्य के एक प्रमुख रचनाकार रहे हैं| वे कविता, शायरी और उपन्यास लेखन, सभी क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय थे और पाठकों, श्रोताओं के चहेते रहे हैं| उनको अनेक साहित्यिक और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे|
आज मैं डॉ राही मासूम रज़ा साहब की यह प्रसिद्ध गजल शेयर कर रहा हूँ-
अजनबी शहर के अजनबी रास्ते, मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे, मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे|
ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे, ज़िंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे|
ज़ख़्म जब भी कोई ज़ेह्न-ओ-दिल पे लगा, ज़िंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला, हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं, चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे|
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया, इतनी यादों के भटके हुए कारवाँ, दिल के ज़ख़्मों के दर खटखटाते रहे|
सख़्त हालात के तेज़ तूफानों में , घिर गया था हमारा जुनून-ए-वफ़ा, हम चिराग़े-तमन्ना जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे|
नक़्श लायलपुरी साहब एक प्रमुख साहित्यकार और फिल्मी गीतकार रहे हैं, उनके अनेक गीत हम आज भी गुनगुनाते हैं, जैसे ‘मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूंगा सदा’, ‘कई सदियों से कई जन्मों से’ आदि-आदि|
आज उनकी एक सुंदर सी ग़ज़ल मैं शेयर कर रहा हूँ, जिसमें विभिन्न परिस्थितियों और मनः स्थितियों में आँखों की स्थिति को व्यक्त किया गया है-
तुझको सोचा तो खो गईं आँखें, दिल का आईना हो गईं आँखें|
ख़त का पढ़ना भी हो गया मुश्किल, सारा काग़ज़ भिगो गईं आँखें|
कितना गहरा है इश्क़ का दरिया, उसकी तह में डुबो गईं आँखें|
कोई जुगनू नहीं तसव्वुर का, कितनी वीरान हो गईं आँखें|
दो दिलों को नज़र के धागे से, इक लड़ी में पिरो गईं आँखें|
रात कितनी उदास बैठी है, चाँद निकला तो सो गईं आँखें|
‘नक़्श’ आबाद क्या हुए सपने, और बरबाद हो गईं आँखें|