
जो ‘धर्म’ पै बीती देख चुके ‘ईमां’ पै जो गुज़री देख चुके,
इस ‘रामो-रहीम’ की दुनिया में इंसान का जीना मुश्किल है|
अर्श मलसियानी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
जो ‘धर्म’ पै बीती देख चुके ‘ईमां’ पै जो गुज़री देख चुके,
इस ‘रामो-रहीम’ की दुनिया में इंसान का जीना मुश्किल है|
अर्श मलसियानी
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है|
राहत इन्दौरी
हम को दीवाना जान के क्या क्या जुल्म न ढाया लोगों ने,
दीन छुड़ाया, धर्म छुड़ाया, देस छुड़ाया लोगो ने|
कैफ़ भोपाली
आज एक बार फिर से मैं, अपनी कविताओं, नज़्मों, कहानियों और उपन्यासों में बड़ी सादगी से बड़ी बातें कहने वाले ज़नाब राही मासूम रज़ा साहब की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| उनका एक प्रसिद्ध उपन्यास है ‘दिल एक सादा कागज़’ मुझे याद है उनके उपन्यास पढ़ते हुए भी ऐसा लगता था जैसे कोई कविता पढ़ रहे हों| उनकी इस तरह की एक बहुत सुंदर रचना मैं पहले भी शेयर कर चुका हूँ, ‘लेकिन मेरा लावारिस दिल’ |
लीजिए आज राही मासूम रज़ा साहब की यह रचना शेयर कर रहा हूँ, इस रचना में बहुत सादगी से जो बातें उन्होंने कही हैं वे आज के असहिष्णुता भरे माहौल में बहुत महत्वपूर्ण हैं –
सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन,
इश्क तराजू तो है, लेकिन, इस पे दिलों को तौले कौन|
सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया,
दिल की दुकानें बंद पड़ी है, पर ये दुकानें खोले कौन|
काली रात के मुँह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून,
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन|
हमने दिल का सागर मथ कर काढ़ा तो कुछ अमृत,
लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन|
लोग अपनों के खूँ में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें,
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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लोग अपनों के खूँ में नहाकर, गीता और कुरान पढ़ें,
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन।
राही मासूम रज़ा
आज मैं स्वर्गीय राही मासूम रज़ा साहब की एक नज़्म शेयर कर रहा हूँ| राही मासूम रज़ा साहब एक प्रतिष्ठित साहित्यकार थे तथा उनको अनेक साहित्यिक सम्मानों के अलावा पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे अलंकरणों से भी सम्मानित किया गया था| उनके उपन्यास ‘दिल एक सादा कागज’, ‘आधा गांव’ आदि को पढ़ते हुए भी कभी कभी लगता था कि जैसे कविता पढ़ रहे हों| बहुत डूबकर रचनाएं लिखते थे|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय राही मासूम रज़ा साहब की यह नज़्म –
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला|
बन्दा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े
ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते
एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल
जगह-जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और ख़ून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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निदा फ़ाज़ली साहब मेरे अत्यंत प्रिय शायर रहे हैं, बहुत सुंदर गीत, ग़ज़लें और नज़्में उन्होंने लिखी हैं, दोहे ऐसे-ऐसे कि ‘मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार’, और इसे ग़ज़ल कहें या भजन- ‘गरज, बरस प्यासी धरती पर, फिर पानी दे मौला’, ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए’ बहुत सारी पंक्तियाँ याद आती हैं, बस एक उदाहरण और दूंगा- ‘बरसात का बादल तो, दीवाना है क्या जाने, किस राह पे मुड़ना है, किस छत को भिगोना है’ आदि-आदि|
आज मैं निदा फ़ाज़ली साहब की जो नज़्म शेयर कर रहा हूँ, वह भी एक जीवंत सच्चाई है, लोगों के बीच में दूरी पैदा करने वाली दीवारें, खास तौर पर हिन्दू-मुसलमानों के बीच में| लीजिए प्रस्तुत है ये नज़्म-
हमको कब जुड़ने दिया
जब भी जुड़े बांटा गया
रास्ते से मिलने वाला
हर रास्ता काटा गया|
कौन बतलाए
सभी अल्लाह के धन्धों में हैं
किस तरफ़ दालें हुईं रुख़सत
किधर आटा गया,
लड़ रहे हैं उसके घर की
चहारदीवारी पर सब
बोलिए, रैदास जी !
जूता कहाँ गांठा गया,
मछलियां नादान हैं
मुमकिन है खा जाएं फ़रेब
फिर मछेरे का
भरे तालाब में कांटा गया
वह लुटेरा था मगर
उसका मुसलमां नाम था
बस, इसी एक जुर्म पर
सदियों उसे डांटा गया|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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स्वर्गीय निदा फ़ाजली साहब मेरे प्रिय शायर रहे हैं, उनकी अनेक रचनाएँ मैंने पहले भी शेयर की हैं| आज एक रचना उनकी शेयर कर रहा हूँ, जो बताती है कि जाति-धर्म के भेदभाव कितने बेमानी हैं| इस कविता में वह कहते हैं कि बच्चे बनकर आइए वही काम करें जो ऊपर वाला करता है, विभिन्न रूप और वेशभूषा के लोग बनाना और फिर उनको नए सांचे में ढाल देना|
लीजिए प्रस्तुत है, निदा फ़ाज़ली साहब की यह सुंदर रचना-
आओ
कहीं से थोड़ी सी मिट्टी भर लाएँ,
मिट्टी को बादल में गूँथें
चाक चलाएँ,
नए-नए आकार बनाएँ|
किसी के सर पे चुटिया रख दें
माथे ऊपर तिलक सजाएँ,
किसी के छोटे से चेहरे पर
मोटी सी दाढ़ी फैलाएँ|
कुछ दिन इनसे जी बहलाएँ,
और यह जब मैले हो जाएँ,
दाढ़ी चोटी तिलक सभी को,
तोड़-फोड़ के गड़-मड़ कर दें|
मिली हुई यह मिट्टी फिर से
अलग-अलग साँचों में भर दें,
– चाक चलाएँ
नए-नए आकार बनाएँ|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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