
लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो,
ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते|
गुलज़ार
आसमान धुनिए के छप्पर सा
लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो,
ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते|
गुलज़ार
मैं दरिया से भी डरता हूँ,
तुम दरिया से भी गहरे हो|
मोहसिन नक़वी
मैं तो जलते हुए सहराओं का इक पत्थर था,
तुम तो दरिया थे मिरी प्यास बुझाते जाते|
राहत इन्दौरी
दरिया के पास धूप को बरगद कोई मिला,
दरिया के पास धूप ज़रा काकुली हुई|
सूर्यभानु गुप्त
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है|
जिगर मुरादाबादी
रात यों चाँद को देखा है नदी में रक्साँ,
जैसे झूमर तेरे माथे पे हिला करता है|
क़तील शिफ़ाई
कैसा दरिया है कि प्यासा तो न मरने देगा,
अपनी गहराई का अंदाज़ा न करने देगा|
वसीम बरेलवी
जहान-ए-इश्क़ में सोहनी कहीं दिखाई दे,
हम अपनी आँख में कितने चेनाब रखते हैं|
हसरत जयपुरी
सावन चढ़े पड़ोस के, दरिया के शोर में,
इक अजनबी का प्यार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
आज एक बार फिर मैं अपने अत्यंत प्रिय गीतकार श्री सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| मुझे गर्व है कि मैंने अपने कई आयोजनों में सोम जी को आमंत्रित किया था और जी भरकर उनके मधुर गीतों और मंच संचालन का आनंद लिया था|
लीजिए आज प्रस्तुत है आदरणीय सोम ठाकुर जी का यह गीत –
तुम रहे हो द्वीप जैसे, मैं किनारे सा रहा,
पर हमारे बीच में है सिंधु लहराता हुआ|
शीशे काटे शब्द रहते हैं तुम्हारे होंठ पर
लाख चेहरे हैं मगर मेरी अकेली बात के
दिन सुनहले हैं तुम्हारे स्वप्न तक उड़ते हुए
पंख हैं नोंचे हुए मेरी अंधेरी रात के,
सिर्फ़ मेरी बात में शाकुंतलों की गंध है
तुम रहे खामोश, मैं हर बात दोहराता हुआ|
छेड़कर एकांत मेरा शक्ल कैसी ले रही है
लाल -पीली सब्ज़ यादों से तराशी कतरनें,
ला रही कैसी घुटन का ज्वर ये पुरवाइयाँ
तेज़ खट्टापन लिए हैं दोपहर की फिसलनें,
भीगता हूँ गर्म तेजाबी लहर में दृष्टि तक
वक्त गलता है तपी बौछार छहराता हुआ|
शोर कैसा है, न जिसको नाम मैं दे पा रहा
है अजब आकाश, ऋतुएं हो गई हैं अनमनी
झनझनाती हैं ज़ेहन मेरा लपकती बिजलियाँ
एक आँचल है मगर, बाँधे हुए संजीवनी
थरथराती भूमि है पाँवों-तले, पर शीश पर
टूटता आकाश है घनघोर घहराता हुआ|
चाँदनी तुमने सुला दी विस्मरण की गोद में
बात हम कैसे रूपहली यादगारों की करें
एक दहशत खोजती रहती मुझे आठों प्रहर
किस लहकते रंग से गमगीन रांगोली भरे
तुम रहे हर एक सिहरन को विदा करते हुए
मैं दबे तूफान अपने पास ठहराता हुआ|
मैं न पढ़ पाया कभी सायं नियम की संहिता
मैं जिया कमज़ोरियों से आसुओं से, प्यार से
साथ मेरे चल रहा है काल का बहरा बधिक
चीरता है जो मुझे हर क्षण अदेखी धार से
देवता बनकर रहे तुम वेदना से बेख़बर
मैं लिए हूँ घाव पर हर घाव घहराता हुआ|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार| ********