
भूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वाले,
आज के प्यार को मायूब* समझते होंगे|
*ग़लत
बशीर बद्र
आसमान धुनिए के छप्पर सा
भूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वाले,
आज के प्यार को मायूब* समझते होंगे|
*ग़लत
बशीर बद्र
डस ही लेता है सबको इश्क़ कभी,
साँप मौक़ा-शनास होता है|
गुलज़ार
अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया,
तेरी कलाई से ये कड़ा भी उतर गया|
मुनव्वर राना
एक बार फिर से मैं आज छायावाद युग की एक प्रमुख कवियित्री स्वर्गीया महादेवी वर्मा जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ| महादेवी जी ने अपनी रचनाओं में पीड़ा की बड़ी प्रभावी अभिव्यक्ति दी है| महादेवी जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है महादेवी वर्मा जी की यह कविता–
रजतकरों की मृदुल तूलिका
से ले तुहिन-बिन्दु सुकुमार,
कलियों पर जब आँक रहा था
करूण कथा अपनी संसार;
तरल हृदय की उच्छ्वास
जब भोले मेघ लुटा जाते,
अन्धकार दिन की चोटों पर
अंजन बरसाने आते!
मधु की बूदों में छ्लके जब
तारक लोकों के शुचि फूल,
विधुर हृदय की मृदु कम्पन सा
सिहर उठा वह नीरव कूल;
मूक प्रणय से, मधुर व्यथा से
स्वप्न लोक के से आह्वान,
वे आये चुपचाप सुनाने
तब मधुमय मुरली की तान।
चल चितवन के दूत सुना
उनके, पल में रहस्य की बात,
मेरे निर्निमेष पलकों में
मचा गये क्या क्या उत्पात!
जीवन है उन्माद तभी से
निधियां प्राणों के छाले,
मांग रहा है विपुल वेदना
के मन प्याले पर प्याले!
पीड़ा का साम्राज्य बस गया
उस दिन दूर क्षितिज के पार,
मिटना था निर्वाण जहाँ
नीरव रोदन था पहरेदार!
कैसे कहती हो सपना है
अलि! उस मूक मिलन की बात?
भरे हुए अब तक फूलों में
मेरे आँसू उनके हास!
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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अपनी अपनी चाहतें हैं लोग अब जो भी कहें,
इक परी-पैकर* को इक आशुफ़्ता-सर** अच्छा लगा|
*सुंदरी, **सिरफिरा
अहमद फ़राज़
‘फ़ैज़’ तकमील-ए-ग़म भी हो न सकी,
इश्क़ को आज़मा के देख लिया|
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
और क्या देखने को बाक़ी है,
आपसे दिल लगा के देख लिया|
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की,
ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें|
फ़िराक़ गोरखपुरी
इश्क़ आग़ाज़ में हल्की सी ख़लिश रखता है,
बाद में सैंकड़ों आज़ार से लग जाते हैं|
अहमद फ़राज़
दोस्तो इश्क़ है ख़ता लेकिन,
क्या ख़ता दरगुज़र नहीं होती|
इब्न ए इंशा