एक बार फिर से मैं आज श्रेष्ठ कवि, गीतकार श्री सत्यनारायण जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ, जो पटना निवासी हैं, शत्रुघ्न सिन्हा जी के पडौसी और मित्र हैं और मुझको, उनको अपना मित्र कहने में गर्व का अनुभव होता है| यद्यपि 11 साल पहले एनटीपीसी से सेवानिवृत्त होने के और गोवा में आकर बस जाने के बाद, अब किसी से मेरा संपर्क नहीं रहा है|
लीजिए आज श्री सत्यनारायण जी का यह नवगीत प्रस्तुत है, जिसका कथ्य स्वतः स्पष्ट है –
ख़बरदार ‘राजा नंगा है‘… मत कहना
राजा नंगा है तो है इससे तुमको क्या सच को सच कहने पर होगी घोर समस्या सभी सयाने चुप हैं तुम भी चुप रहना
राजा दिन को रात कहे तो रात कहो तुम राजा को जो भाये वैसी बात करो तुम जैसे राखे राजा वैसे ही रहना राजा जो बोले समझो कानून वही है राजा उल्टी चाल चले तो वही सही है इस उल्टी गंगा में तुम उल्टा बहना
राजा की तुम अगर खिलाफ़त कभी करोगे चौराहे पर सरेआम बेमौत मरोगे अब तक सहते आये हो अब भी सहना ।
अपने सेवाकाल के दौरान मुझे, कवि सम्मेलनों का आयोजन करने के कारण हिन्दी के अनेक श्रेष्ठ कवियों/ गीतकारों के संपर्क में आने का अवसर मिला| आज उनमें से ही एक श्रेष्ठ नवगीतकार पटना के श्री सत्यनारायण जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| सत्यनारायण जी पटना में शत्रुघ्न सिन्हा जी के पडौसी और मित्र भी हैं और मेरे लिए भी वे बड़े भाई के समान हैं, यद्यपि उनसे मिले अब तो बहुत लंबा समय हो गया है| कवि सम्मेलनों का स्तरीय संचालन करना भी सत्यनारायण जी की विशेषता है|
लीजिए आज प्रस्तुत है श्री सत्यनारायण जी का यह नवगीत जिसमें उन्होंने छोटी बच्ची से संवाद के बहाने से कितनी सुंदर भावाभिव्यक्ति दी है–
अरी अक्षरा तू है बढ़ी उम्र का गीत सुनहरा
मेरे उजले केश किंतु, इनसे उजली तेरी किलकारी तेरे आगे फीकी लगती चाँद-सितारों की उजियारी कौन थाह पाएगा बिटिया यह अनुराग बड़ा है गहरा
तू हँसती है झिलमिल करती आबदार मोती की लड़ियाँ तेरी लार-लपेटी बोली छूट रहीं सौ-सौ फुलझड़ियाँ ये दिन हैं खिलने-खुलने के इन पर कहाँ किसी का पहरा
होंठों पर उग-उग आते हैं दूध-बिलोये अनगिन आखर कितने-कितने अर्थ कौंधते गागर में आ जाता सागर मैं जीवन का वर्ण आखिरी तू मेरा अनमोल ककहरा ।
आज वरिष्ठ कवि और बहुत अच्छे इंसान- श्री सत्यनारायण जी के बारे में कुछ बात करूंगा, जो एक श्रेष्ठ कवि हैं, पटना में रहते हैं, शत्रुघ्न सिन्हा जी के मित्र और पड़ौसी हैं और सबसे बड़ी बात कि साहित्यिक गरिमा के साथ कवि सम्मेलन का श्रेष्ठ संचालन करते हैं|
पहली बार मैंने उनके संचालन में हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड के झारखंड क्षेत्र स्थित कॉम्प्लेक्स में कवि सम्मेलन सुना था, तब से मेरा उनको पुनः संचालन एवं कविता पाठ हेतु बुलाने का मन था| एनटीपीसी की विंध्याचल परियोजना में उनको बुलाने का अवसर मिला|
एक बात और उस समय आज जैसी इंटरनेट, मोबाइल आदि की सुविधाएं नहीं थी और मैं अक्सर कवियों के घर पर ही आमंत्रित करने के लिए जाता था| इस प्रकार मुझे अन्य अनेक लोगों के अलावा नीरज जी, मुंबई में व्यंग्यकार- शरद जोशी जी आदि के घर भी जाने का अवसर मिला|
श्री सत्यनारायण जी के ‘कदम कुआं’ स्थित आवास पर भी मैं गया था और शत्रुघ्न सिन्हा का पड़ौस भी देख लिया था| वैसे सत्यनारायण जी ने शत्रुघ्न सिन्हा की किसी फिल्म, शायद- ‘काला पत्थर’ में गीत भी लिखे हैं|
उनकी कविता शेयर करने से पहले एक दो संस्मरण और- मैं पटना एक बार घूमने गया था तब सत्यनारायण जी से, जिस होटल में मैं रुका था वहाँ मुलाकात हुई थी| हमने काफी लंबी बैठक की थी, और मैंने उनको जगजीत सिंह जी की गायी हुई ग़ज़ल सुनाई थी, जिसको उन्होंने बहुत सराहा था, उस समय मुझे भी यह नहीं मालूम था कि वह निदा फ़ाज़ली साहब की लिखी हुई है और उन्होंने तो तब तक उसे सुना ही नहीं था, लेकिन सुनकर वे बहुत प्रभावित हुए थे और बोले थे कि निश्चित रूप से किसी बहुत अच्छे कवि-शायर ने इसे लिखा होगा| यह ग़ज़ल थी- ‘गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला’|
मिलने पर वे यही बोलते थे कि कवि सम्मेलन तो चलते रहते हैं, इस बहाने हम लोग आपस में मिल लेते हैं, ये बड़ी बात है|
अब उनकी कविता शेयर करने से पहले एक बात और कहूँगा ऊंचाहार के कवि सम्मेलन में नीरज जी भी थे और उन्होंने सत्यनारायण जी के संचालन और उनके काव्य-पाठ की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी|
मैं 2010 में एनटीपीसी से रिटायर हो गया था, उससे पहले ही सत्यनारायण जी से मुलाकात हुई थी, कामना करता हूँ कि वे स्वस्थ एवं प्रसन्न हों| उनका नवगीत संकलन है – ‘सभाध्यक्ष हँस रहा है’|
अब प्रस्तुत है उनका एक नवगीत-
सूने घर में कोने-कोने मकड़ी बुनती जाल
अम्मा बिन आँगन सूना है बाबा बिन दालान, चिट्ठी आई है बहिना की साँसत में है जान, नित-नित नए तगादे भेजे बहिना की ससुराल ।
भइया तो परदेश विराजे कौन करे अब चेत, साहू के खाते में बंधक है बीघा भर खेत, शायद कुर्की ज़ब्ती भी हो जाए अगले साल ।
ओर छोर छप्पर का टपके उनके काली रात, शायद अबकी झेल न पाए भादों की बरसात पुरखों की यह एक निशानी किसे सुनाए हाल ।
फिर भी एक दिया जलता है जब साँझी के नाम, लगता कोई पथ जोहे खिड़की के पल्ले थाम, बड़ी-बड़ी दो आँखें पूछें फिर-फिर वही सवाल ।