मौसम को उस्ताद किया!

दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही,
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया|

निदा फ़ाज़ली

आईनों की तरह जड़े हैं पेड़!

अपना चेहरा निहार लें ऋतुएँ,
आईनों की तरह जड़े हैं पेड़|

सूर्यभानु गुप्त

बहार आई चमन में या ख़िज़ाँ आई!

क़फ़स में मौसमों का कोई अंदाज़ा नहीं होता,
ख़ुदा जाने बहार आई चमन में या ख़िज़ाँ आई|

मुनव्वर राना

बिखरता रहा हूँ मैं!

मैं मौसमों के जाल में जकड़ा हुआ दरख़्त,
उगने के साथ-साथ बिखरता रहा हूँ मैं|

निदा फ़ाज़ली

और जाम टूटेंगे–

और जाम टूटेंगे, इस शराबख़ाने में,
मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में|

बशीर बद्र

बदलते हुए मौसम की तरह!

कभी ग़ुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह,
लोग मिलते हैं बदलते हुए मौसम की तरह|

राना सहरी