पढ़कर भी क्या होगा!

हिन्दी नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर स्वर्गीय कुमार शिव जी का एक गीत आज शेयर कर रहा हूँ| उनकी एक गीत पंक्ति जो मैंने कई बार अपने आलेखों में दोहराई है, वो है:


फ्यूज बल्बों के अद्भुद समारोह में,
रोशनी को शहर से निकाला गया|

एक और

काले कपड़े पहने हुए सुबह देखी,
देखी हमने अपनी सालगिरह देखी|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय कुमार शिव जी का यह एक अलग तरह का गीत, जो ऐसे लोगों के संबंध में है, जिनको देखकर ही लग जाता है कि वे हमारे शुभचिंतक नहीं हो सकते, लीजिए प्रस्तुत है यह गीत –

लिखी हुई संदिग्ध भूमिका
जब चेहरे की पुस्तक पर
भीतर के पृष्ठों, अध्यायों को
पढ़कर भी क्या होगा ?

चमकीला आवरण सुचिक्कन
और बहुत आकर्षक भी
खिंचा घने केशों के नीचे
इन्द्रधनुष-सा मोहक भी

देखे,मगर अदेखा कर दे
नज़र झुका कर चल दे जो
ऐसे अपने-अनजाने के सम्मुख
बढ़कर भी क्या होगा ?

अबरी गौंद शिकायत की है
मुस्कानों की जिल्द बँधी
होंठों पर उफ़नी रहती है
परिवादों से भरी नदी


अगर पता चल जाय, कथा का
उपसंहार शुरू में ही
तो फिर शब्दों की लम्बी सीढ़ी
चढ़कर भी क्या होगा ?

आज के लिए इतना ही,

नमस्कार|

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