फ़क़त आग बुझाने के लिए हैं!

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की,
वर्ना ये फ़क़त आग बुझाने के लिए हैं|

जाँ निसार अख़्तर

मंगल विलय!

एक बार फिर से आज मैं श्री सोम ठाकुर जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ, सोम ठाकुर जी के बहुत से गीत मैंने पहले भी शेयर किए हैं| मूलतः वे प्रेम के गीतकार हैं और उनके प्रेम का दायरा इतना बड़ा है कि उसमें राष्ट्र प्रेम, भाषा प्रेम सभी शामिल हो जाते हैं और उन्होंने हर क्षेत्र में कुछ अमर गीत दिए हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है सोम ठाकुर जी का यह रूमानी गीत, जिसका निर्वाह सोम जी ने बहुत सुंदर तरीके से किया है-

इस निरभ्रा चाँदनी में
आज फिर गुँथ जाए तेरी छाँह, मेरी छाँह|

नयन – कोरों पर,
लटों के मुक्त छोरों पर
टूटती हैं नीम से छनती किरण
रुक गया हो रूप निर्झर पर, कि जैसे
अमरता का क्षण,
एक तरल उष्णता है —
जो कि राग — रागनाप ठंडे बदनो को खोलती हैं
वारुणी –संज्ञावती हैं,
आत्म –प्लावक मानसर में
आज फिर बुझ जाए तेरा दाह, मेरा दाह ।

जो कछारों में
न बोला नमस्कारों में
अर्थ वह इस प्राण का चंदन,
महकता है, पर नही करता
किसी अभिव्यक्ति का पूजन,
आत्मजा हर लहर मन की
कुछ अनाम ऊर्जामय लय तरंगों में थकूँ मैं,
स्रष्टि को दोहरा सकू मैं,
शब्द गर्वित जो नही वह
आज फिर चुक जाए तेरी चाह में, मेरी चाह ।


दूर के वन में
दिशाओं के समापन में
काँपता है एक सूनापन,
हर प्रहार स्वीकारता जाता
द्रगों में डूबने का प्रन
यह विमुक्ता देह मेरी ,
दो मुझे तुम रूप–क्षण का स्पर्श,
चेतन तक गलूँ मैं
और अनुक्षण जन्म लूँ मैं,

ओ निमग्ने !
एक मंगल–विलय तक मुड़ जाए, तेरी राह, मेरी राह।


आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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