शब्दों से परे!

आज फिर से मैं हिन्दी नवगीत के एक प्रमुख हस्ताक्षर स्वर्गीय वीरेंद्र मिश्र जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ| मन में पलती पीड़ाओं को मिश्र जी ने इस गीत में सुंदर अभिव्यक्ति दी है|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय वीरेंद्र मिश्र जी का यह नवगीत –


शब्दों से परे-परे
मन के घन भरे-भरे

वर्षा की भूमिका कब से तैयार है
हर मौसम बूंद का संचित विस्तार है
उत्सुक ॠतुराजों की चिंता अब कौन करे

पीड़ा अनुभूति है वह कोई व्यक्ति नहीं
दुख है वर्णनातीत संभव अभिव्यक्ति नहीं
बादल युग आया है जंगल हैं हरे-हरे

मन का तो सरोकार है केवल याद से
पहुँचते हैं द्वार-द्वार कितने ही हादसे
भरी-भरी आँखों में सपने हैं डरे-डरे


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|

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