
परछाईं के इस जंगल में क्या कोई मौजूद नहीं,
इस दश्त-ए-तन्हाई से कब लोग रिहाई पाएँगे|
राही मासूम रज़ा
आसमान धुनिए के छप्पर सा
परछाईं के इस जंगल में क्या कोई मौजूद नहीं,
इस दश्त-ए-तन्हाई से कब लोग रिहाई पाएँगे|
राही मासूम रज़ा
हम साँझ समय की छाया हैं तुम चढ़ती रात के चन्द्रमा,
हम जाते हैं तुम आते हो फिर मेल की सूरत क्यूँकर हो|
इब्न ए इंशा
दिल के उफ़क़ तक अब तो हैं परछाइयाँ तिरी,
ले जाए अब तो देख ये वहशत कहाँ कहाँ|
फ़िराक़ गोरखपुरी
याद जिस चीज़ को कहते हैं वो परछाईं है,
और साए भी किसी शख़्स के हाथ आए हैं|
राही मासूम रज़ा
क़द से बढ़ जाए जो साया तो बुरा लगता है,
अपना सूरज वो उठा लेता है हर शाम के बाद|
कृष्ण बिहारी ‘नूर’
मिलते हैं चंद साए, धुँधलकों में अब जिधर,
इक पीर का मज़ार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं,
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में|
गुलज़ार
क्या यही होती है शाम-ए-इंतिज़ार,
आहटें, घबराहटें, परछाइयाँ|
कैफ़ भोपाली
कोई लश्कर है के बढ़ते हुए ग़म आते हैं |
शाम के साये बहुत तेज़ क़दम आते हैं ||
बशीर बद्र
है ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम,
कि लोग अपनी ही ख़ुद परछाइयाँ हैं|
सूर्यभानु गुप्त