
मिलते हैं चंद साए, धुँधलकों में अब जिधर,
इक पीर का मज़ार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
आसमान धुनिए के छप्पर सा
मिलते हैं चंद साए, धुँधलकों में अब जिधर,
इक पीर का मज़ार है, जामुन का पेड़ है।
सूर्यभानु गुप्त
शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं,
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में|
गुलज़ार
क्या यही होती है शाम-ए-इंतिज़ार,
आहटें, घबराहटें, परछाइयाँ|
कैफ़ भोपाली
कोई लश्कर है के बढ़ते हुए ग़म आते हैं |
शाम के साये बहुत तेज़ क़दम आते हैं ||
बशीर बद्र
है ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम,
कि लोग अपनी ही ख़ुद परछाइयाँ हैं|
सूर्यभानु गुप्त
हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे,
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे|
क़तील शिफ़ाई