वक़्त की मीनार पर!

आज एक बार फिर से मैं नवगीत आंदोलन के शिखर पुरुष स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| शंभुनाथ जी ने अपने गीतों और नेतृत्व- संकलन, संपादन आदि के माध्यम से नवगीत को सुदृढ़ आधार प्रदान किया था|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी का यह नवगीत –


मैं तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।

तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
जंगलों में या पहाड़ों में,
मंदिरों में, खंडहरों में,
सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,

मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।

शाल-वन की छाँव में
चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
पास मृगछौने बुलाता हूँ,

पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।

रेत में सूखी नदी की
मैं अजन्ताएँ बनाता हूँ,
द्वार पर बैठा गुफ़ा के
मैं तथागत गीत गाता हूँ,

बोध के वे क्षण, मुझे लगता
कि मैं ख़ुद से बड़ा हूँ।

इन झरोखों से लुटाता
उम्र का अनमोल सरमाया,
मैं दिनों की सीढ़ियाँ
चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,

हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|

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जीवन लय!

आज मैं हिन्दी नवगीत के शिखर पुरुष स्वर्गीय शंभूनाथ सिंह जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ| स्वर्गीय शंभूनाथ सिंह जी ने नवगीत आंदोलन का कुशल नेतृत्व किया तथा नवगीत संबंधी की संकलनों का संपादन भी किया था|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय शंभूनाथ सिंह जी का यह नवगीत –

शब्द है,
स्वर है,
सजग अनुभूति भी
पर लय नहीं है!

कट गए पर हैं
अगम इस शून्य में,
उल्का सदृश
गिरते हुए मुझको
कहीं आश्रय नहीं है!

थम गए क्षण हैं
दुसह क्षण
अन्तहीन, अछोर निरवधि काल के;
फिर भी मुझे
कुछ भय नहीं है!

एक ही परिताप प्राणों में
सजग अनुभूति
पर क्यों लय नहीं है?


(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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वक़्त की मीनार पर!

आज मैं हिन्दी नवगीत के प्रतिष्ठापक और एक श्रेष्ठ कवि एवं नवगीतकार स्वर्गीय शंभूनाथ सिंह जी की एक रचना, शेयर कर रहा हूँ| हिन्दी नवगीत के पुरोधा के रूप में इनका बहुत सम्मान है|
लीजिए, प्रस्तुत है स्वर्गीय शंभूनाथ सिंह जी का यह गीत-

मैं तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।

तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,
जंगलों में या पहाड़ों में,
मंदिरों में, खंडहरों में,
सिन्धु लहरों की पछाड़ों में,

मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।

शाल-वन की छाँव में
चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,
स्वर मिला स्वर में तुम्हारे
पास मृगछौने बुलाता हूँ,

पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।

रेत में सूखी नदी की
मैं अजन्ताएँ बनाता हूँ,
द्वार पर बैठा गुफ़ा के
मैं तथागत गीत गाता हूँ,

बोढ के वे क्षण, मुझे लगता
कि मैं ख़ुद से बड़ा हूँ।

इन झरोखों से लुटाता
उम्र का अनमोल सरमाया,
मैं दिनों की सीढ़ियाँ
चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,

हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।

(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)

आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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नवनिर्माण का संकल्प!

नवगीत आंदोलन के शिखर पुरूष स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी का एक नवगीत आज शेयर कर रहा हूँ| यह गीत एक तरह से सभी रचनाकारों और सजग नागरिकों की तरफ से एक संकल्प गीत है|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी का यह नवगीत –


विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!

यहाँ राह अपनी बनाने चले हम,
यहाँ प्यास अपनी बुझाने चले हम,
जहाँ हाथ और पाँव की ज़िन्दगी हो
नई एक दुनिया बसाने चले हम;
विषम भूमि को सम बनाना हमें है
निठुर व्योम को भी झुकाना हमें है;
न अपने लिये, विश्वभर के लिये ही
धरा व्योम को हम रखेंगे उलटकर!

विषम भूमि नीचे, निठुर व्योम ऊपर!
अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!


लहर गिरि-शिखर सी उठी आ रही है,
हमें घेर झंझा चली आ रही है,
गरजकर, तड़पकर, बरसकर घटा भी
तरी को हमारे ड़रा जा रही है
नहीं हम ड़रेंगे, नहीं हम रुकेंगे,
न मानव कभी भी प्रलय से झुकेंगे
न लंगर गिरेगा, न नौका रुकेगी
रहे तो रहे सिन्धु बन आज अनुचर!

अगम सिंधु नीचे, प्रलय मेघ ऊपर!
कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर!

बना रक्त से कंटकों पर निशानी
रहे पंथ पर लिख चरण ये कहानी

,
बरसती चली जा रही व्योम ज्वाला
तपाते चले जा रहे हम जवानी;
नहीं पर मरेंगे, नहीं पर मिटेंगे
न जब तक यहाँ विश्व नूतन रचेंगे
यही भूख तन में, यही प्यास मन में
करें विश्व सुन्दर, बने विश्व सुन्दर!

कठिन पंथ नीचे, दुसह अग्नि ऊपर!


आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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देखेगा कौन?

हिन्दी नवगीत आंदोलन के प्रणेता स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी, हिन्दी गीत साहित्य में अपने योगदान के लिए हमेशा याद किए जाएंगे|

आज मैं स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूं-


बगिया में नाचेगा मोर,
देखेगा कौन?
तुम बिन ओ मेरे चितचोर,
देखेगा कौन?

नदिया का यह नीला जल, रेतीला घाट,
झाऊ की झुरमुट के बीच, यह सूनी बाट,
रह-रह कर उठती हिलकोर,
देखेगा कौन?

आँखड़ियों से झरते लोर,
देखेगा कौन?

बौने ढाकों का यह वन, लपटों के फूल,
पगडंडी के उठते पाँव, रोकते बबूल,
बौराये आमों की ओर,
देखेगा कौन?
पाथर-सा ले हिया कठोर,
देखेगा कौन?

नाचती हुई फुल-सुंघनी, बनतीतर शोख,
घास पर सोन-चिरैया, डाल पर महोख,
मैना की यह पतली ठोर,
देखेगा कौन?
कलंगी वाले ये कठफोर,
देखेगा कौन?

आसमान की ऐंठन-सी धुएँ की लकीर,
ओर-छोर नापती हुई, जलती शहतीर,
छू-छूकर सांझ और भोर,
देखेगा कौन?
दुखती यह देह पोर-पोर,
देखेगा कौन?


आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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समय की शिला पर मधुर चित्र कितने!

आज हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि और नवगीत आंदोलन के प्रणेता स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी का एक गीत शेयर कर रहा हूँ| इत्तेफाक से मैं कभी उनके कभी दर्शन नहीं कर पाया लेकिन किसी रचनाकार से असली जुड़ाव तो उसकी रचनाओं के माध्यम से ही होता है|

लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय शंभुनाथ सिंह जी का यह गीत-

समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।

किसी ने लिखी आंसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।

शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।

भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाए, उषा ने सुलाए।

सुरभि की अनिल-पंख पर मोर भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिन्दु बनकर बिखर पर गए स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाए, लहर ने बहाए।

आज के लिए इतना ही,

नमस्कार |

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