
इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ ।
हर साँस को मैं, बनकर सुक़रात, बरतता हूँ ।
राजेश रेड्डी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ ।
हर साँस को मैं, बनकर सुक़रात, बरतता हूँ ।
राजेश रेड्डी