
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी,
और ये चोट भी नई है अभी|
नासिर काज़मी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी,
और ये चोट भी नई है अभी|
नासिर काज़मी
कुछ बूढ़े मेरे गांव के संजीदा हो गये,
फेंकी जो मैंने शहर की भाषा धुली हुई|
सूर्यभानु गुप्त
आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं,
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है|
जिगर मुरादाबादी