
उसके ही बाज़ुओं में और उसको ही सोचते रहे,
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी|
परवीन शाकिर
आसमान धुनिए के छप्पर सा
उसके ही बाज़ुओं में और उसको ही सोचते रहे,
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी|
परवीन शाकिर
इस ख़ाक-ए-बदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी,
क्या इतना करम बाद-ए-सबा हो नहीं सकता|
मुनव्वर राना
ऐ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला,
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता|
मुनव्वर राना
रूह को भी मज़ा मोहब्बत का,
दिल की हम-साएगी से मिलता है|
जिगर मुरादाबादी
मेरी ख़ामोशि-ए-दिल पर न जाओ,
कि इसमें रूह की आवाज़ भी है|
अर्श मलसियानी
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब,
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब|
कैफ़ी आज़मी
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।
गोपालदास “नीरज”
जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं,
घर से बाहर वही निकलते हैं।
सूर्यभानु गुप्त
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं,
कभी धरती के, कभी चांद नगर के हम हैं |
निदा फ़ाज़ली
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा|
मीना कुमारी (महज़बीं बानो)