
कभी तो हो मेरे कमरे में ऐसा मंज़र भी,
बहार देख के खिड़की से मुस्कराई हो|
परवीन शाकिर
आसमान धुनिए के छप्पर सा
कभी तो हो मेरे कमरे में ऐसा मंज़र भी,
बहार देख के खिड़की से मुस्कराई हो|
परवीन शाकिर
अपने माज़ी की जुस्तुजू में बहार,
पीले पत्ते तलाश करती है|
गुलज़ार
मोल्सरी की शाख़ों पर भी दिये जलें,
शाख़ों का केसरया आँचल भेजो न|
राहत इन्दौरी
आज मैं तारसप्तक के एक प्रमुख कवि स्वर्गीय गिरिजा कुमार माथुर जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| गिरिजा कुमार माथुर जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए थे| इस कविता में वसंत के सौन्दर्य को बड़े प्रभावी ढंग से चित्रित किया गया है|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय गिरिजा कुमार माथुर जी की यह कविता-
आज हैं केसर रंग रंगे वन
रंजित शाम भी फागुन की खिली खिली पीली कली-सी
केसर के वसनों में छिपा तन
सोने की छाँह-सा
बोलती आँखों में
पहले वसन्त के फूल का रंग है।
गोरे कपोलों पे हौले से आ जाती
पहले ही पहले के
रंगीन चुंबन की सी ललाई।
आज हैं केसर रंग रंगे
गृह द्वार नगर वन
जिनके विभिन्न रंगों में है रंग गई
पूनो की चंदन चाँदनी।
जीवन में फिर लौटी मिठास है
गीत की आख़िरी मीठी लकीर-सी
प्यार भी डूबेगा गोरी-सी बाहों में
ओठों में आँखों में
फूलों में डूबे ज्यों
फूल की रेशमी रेशमी छाँहें।
आज हैं केसर रंग रंगे वन।
गिरिजा कुमार माथुर
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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पत्तों के टूटने की सदा घुट के रह गई,
जंगल में दूर-दूर, हवा का पता न था।
मुमताज़ राशिद
बानी-ए-जश्न-ए-बहारां ने ये सोचा भी नहीं,
किसने कांटों को लहू अपना पिलाया होगा|
कैफ़ी आज़मी
हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे,
हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जाना|
अहमद फ़राज़