
दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था,
फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे|
वसीम बरेलवी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था,
फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे|
वसीम बरेलवी
अपने घर संग-ए-मलामत की हुई है बारिश,
बे-गुनाही की सनद हम जो दिखाने निकले|
रज़ा अमरोहवी
है शहर में क़हत पत्थरों का,
जज़्बात के ज़ख़्म खा रहा हूँ|
क़तील शिफ़ाई
हैराँ है कई रोज़ से ठहरा हुआ पानी,
तालाब में अब क्यूँ कोई कंकर नहीं गिरता|
क़तील शिफ़ाई
समझो वहाँ फलदार शजर कोई नहीं है,
वो सहन कि जिसमें कोई पत्थर नहीं गिरता|
क़तील शिफ़ाई
तेरे हमराह मंज़िल तक चलेंगे,
मेरी राहों के पत्थर बोलते हैं|
राजेश रेड्डी
जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे,
हज़ारों तरफ़ से निशाने लगे|
बशीर बद्र
मूरतें कुछ निकाल ही लाया,
पत्थरों तक अगर गया कोई|
सूर्यभानु गुप्त
आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है,
ज़ख़्म हर सर पे, हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है|
सुदर्शन फाक़िर
फेंकने ही हैं अगर पत्थर तो पानी पर उछाल,
तैरती मछली, मचलती नाव पर पत्थर न फेंक|
कुंवर बेचैन