हिन्दी साहित्य में मेरी विशेष रुचि है और मैं अक्सर इसी विषय में लिखता हूँ और कविताएं आदि शेयर करता हूँ| लेकिन मेरी एक कमजोरी है, मुझे गीत-कविताओं से ज्यादा लगाव है और मैं उनको ज्यादा शेयर करता हूँ|
लीजिए मैं आज स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक कविता शेयर कर रहा हूँ, जो कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक थे और ‘दिनमान’ नामक समाचार पत्रिका में कार्य कराते थे| पहले अज्ञेय जी और बाद में रघुवीर सहाय जी द्वारा संपादित यह पत्रिका, भारतवर्ष में इस प्रकार की पहली ‘समाचार पत्रिका’ थी|
लीजिए आज मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की यह कविता, जो जीवन के दौरान की जाने वाली भौतिक और आंतरिक यात्राओं के संघर्ष को अभिव्यक्ति देती है-
यह सिमटती साँझ, यह वीरान जंगल का सिरा, यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा; उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी, आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी, रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ, ताल के खामोश जल पर सो गई परछाइयाँ।
दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं, एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं, आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया, बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया, यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा, खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा।
लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया, देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया; थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले, नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले, कोई कह दे, “दूर देखो टिमटिमाया दीप एक, ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!”
आज फिर से पुरानी ब्लॉग पोस्ट का दिन है, लीजिए प्रस्तुत है ये पोस्ट-
एक पुराने संदर्भ से प्रेरणा लेते हुए आज का आलेख लिख रहा हूँ। लेकिन मैं उन प्रसंगों का ही उल्लेख कर रहा हूँ जिनसे मेरे जीवन, मेरे करियर को सकारात्मक दिशा मिली है। ऐसे प्रसंग नहीं हैं जिनके बारे में मैं नकारात्मक रूप में लिख सकूं।
मैंने अपने शुरू के ब्लॉग्स में अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं, प्रसंगों, प्रभावित करने वाले और कुछ बाधक बनने वाले व्यक्तियों का क्रमबद्ध तरीके से उल्लेख किया, आज संक्षेप में कुछ घटनाओं का उल्लेख करूंगा, जो जीवन को दिशा देने वाली सिद्ध हुईं।
मेरा जन्म हुआ था दिल्ली के दरिया गंज में, लेकिन जब तक मैंने पढ़ाई शुरू की तब तक हम शाहदरा जा चुके थे, जहाँ रहते हुए मैंने पढ़ाई की और जब मैं बीएससी फाइनल में आया था तब मेरे पिता, जो एक विक्रय प्रतिनिधि के रूप में दौरों पर जाते रहते थे, वे एक बार गए तो फिर वापस नहीं आए। मैं यह कह सकता हूँ कि काश यह न हुआ होता, तब शायद ज़िंदगी ज्यादा आसान हो सकती थी, लेकिन पिताजी का काम ठीक से चल नहीं रहा था और वे सन्यास लेने की सोच रहे थे काफी समय से, शायद उनकी ज़िंदगी ज्यादा आराम से बीती हो उसके बाद! वैसे शायद यदि वे न गए होते तो मैं कुछ और हुआ होता!
खैर पिता के जाने के बाद मैंने, पढ़ाई छोड़कर, पहले चार वर्षों में प्रायवेट नौकरियां कीं, जिनमें वेतन रु. 100/- से लेकर शायद 250 तक पहुंचा। उसके बाद केंद्रीय सचिवालय में क्लर्क के रूप में सेवा की लगभग 6 वर्ष तक। विस्तृत विवरण मैं अपने शुरू के ब्लॉग्स में दे चुका हूँ।
जब क्लर्क था, तब की एक घटना, जिसका उल्लेख मैं पहले भी कर चुका हूँ। मैं एलडीसी था और उससे ऊपर का स्तर होता है यूडीसी, जिसमें एक बुज़ुर्ग साथी कार्यरत थे। खूब ओवरटाइम करते थे, अधिक कमाई करने के लिए, जिससे घर का खर्च चल सके! एक बार ओवरटाइम करके लौटते हुए वे साइकिल से गिर गए, बेहोश हो गए, अस्पताल में जब उनको होश आया, तब उनका यही सवाल था-‘ मेरा ओवरटाइम चल रहा है न!’
यह प्रसंग मैंने इसलिए सुनाया कि उस नौकरी में रहते हुए मैं शायद इस गति को प्राप्त होने के ही सपने देख सकता था, शायद उससे ऊपर के स्तर ‘सहायक’ तक पहुंच पाता, रिटायर होने तक!
इस दौरान मैंने बीच में छूटी पढ़ाई को आगे बढ़ाते हुए प्रायवेटली बी.ए. कर लिया था और स्टॉफ सेलेक्शन कमीशन की परीक्षा पास करके मैं ‘हिंदी अनुवादक’ के पद हेतु चुन लिया गया था, जो उस समय के हिसाब से अच्छी उड़ान थी और मेरी पोस्टिंग आकाशवाणी, जयपुर में हो गई। आकाशवाणी में रहते हुए मैंने हिंदी में एम.ए. भी कर लिया।
एक ही और घटना का उल्लेख करना चाहूंगा, आकाशवाणी की नौकरी करते हुए मैंने केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो का प्रशिक्षण प्राप्त किया, जिसमें मैं प्रथम आया और मुझे मैडल मिला। उसके बाद हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड, घाटशिला, झारखंड में मैंने सहायक हिंदी अधिकारी के पद हेतु आवेदन किया। केद्रीय मंत्री रहीं सुश्री राम दुलारी सिन्हा जी के स्टॉफ के एक सज्जन भी वहाँ इंटरव्यू देने आए थे और वे मान रहे थे कि चयन तो उनका ही होना है। उनका चयन नहीं हुआ और मेरा हो गया। बाद में उनकी शिकायत आई जिसे दो केंद्रीय मंत्रियों ने अग्रेषित किया था।
ये सारे प्रसंग अपनी जगह, लेकिन मैं जिसके सपने शुरू में एल.डी.सी से सहायक तक बनने के थे, वह अंततः एनटीपीसी से मिडिल मैंनेजमेंट स्तर तक पहुंचकर रिटायर हुआ, कैसे कहूं कि काश ये न हुआ होता या वो न हुआ होता!
डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता!
चचा गालिब का ये शेर तो ऐसे ही याद आ गया जी, कोई अर्थ तलाश मत कीजिए। नमस्कार! ********
आज डॉ धर्मवीर भारती जी की एक रचना शेयर कर रहा हूँ| भारती जी ने कविता, कहानी, उपन्यास आदि सभी विधाओं में अपना बहुमूल्य योगदान किया था| उनकी कुछ रचनाएँ- सूरज का सातवाँ घोडा, अंधा युग, ठंडा लोहा, ठेले पर हिमालय, सात गीत वर्ष आदि काफी प्रसिद्ध रहीं| वे साप्ताहिक पत्रिका- धर्मयुग के यशस्वी संपादक भी रहे|
लीजिए प्रस्तुत है भारती जी की यह रचना-
मैं क्या जिया ?
मुझको जीवन ने जिया – बूँद-बूँद कर पिया, मुझको पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया|
मैं क्या जला? मुझको अग्नि ने छला – मैं कब पूरा गला, मुझको थोड़ी-सी आँच दिखा दुर्बल मोमबत्ती-सा मोड़ दिया|
देखो मुझे हाय मैं हूँ वह सूर्य जिसे भरी दोपहर में अँधियारे ने तोड़ दिया !
आज एक अनुभव शेयर कर रहा हूँ और उस बहाने से जो कुछ बातें मन में आईं, उनके बारे में बात करूंगा। एक बात का खयाल कई बार आता है, बहुत से ऐसे मित्र हैं जो दफ्तर में मेरे साथ थे, मुझसे उम्र में कम थे, मुझसे काफी बाद रिटायर हुए, लेकिन ऊपर जाने का टिकट उनका कट चुका है और मैं अभी तक यहीं हूँ। यह तो दुनिया की व्यवस्था है- ‘कोई पहले तो कोई बाद में जाने वाला!’ हम यह सब होता हुए देखते रहते हैं, जब नज़दीक में कुछ होता है तब ज्यादा संवेदना के साथ उसको महसूस करने की गुंजाइश रहती है।
मैं आज बात करना चाहूंगा अपने एक निकट संबंधी की मृत्यु के बारे में, मेरे इस संबंधी का अभी हाल ही में स्वर्गवास हुआ है। जिस दिन उनकी तेरहवीं हुई उसके 2 दिन बाद ही उनका जन्मदिन आया और यदि वे जीवित रहे होते तो तब वे 50 वर्ष के हुए होते। मेरे इस संबंधी के पास कोई उच्च डिग्री अथवा विशेषज्ञता नहीं थी, परंतु अपनी मेहनत के दम पर उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र में अच्छा नाम कमाया, उनके मित्रों की कमी नहीं थी, वे आस्तिक भी बहुत थे, नियमित रूप से पूजा-पाठ किया करते थे और अपने कार्य-क्षेत्र में हुए अनुभव के बल पर उन्होंने हाल ही में अपना व्यवसाय शुरू किया था और ईश्वर की दया से व्यवसाय बहुत सही गति से आगे बढ़ रहा था।
मेरे इस दिवंगत संबंधी का एक बेटा है, जो अभी तक ज़िंदगी के झमेलों से दूर संगीत की दुनिया में अपना भाग्य आज़माने में लगा था, कई बार मुंबई हो आया था संगीत कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए। अब इस कहानी को ज्यादा लंबा नहीं करूंगा, अचानक मेरे इस संबंधी को पेट में तकलीफ हुई, पहले भी शायद ऐसी तकलीफ पहले भी कुछ बार हुई थी, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया था। इस बार की यह तकलीफ उनकी आखिरी रही और अचानक उनकी पत्नी और बेटा, जिसने अभी तक दुनियादारी के बारे में कुछ सोचा ही नहीं था, उन पर सारा बोझ पड़ गया, अब व्यवसाय की बारीकियां उनको समझनी होंगी और हाँ समय तो सब कुछ सिखा ही देता है।
यहाँ फिर से मैं दोहराना चाहता हूँ कि मेरे इस संबंधी ने संघर्ष करते हुए अच्छा-खासा बिज़नस प्रारंभ कर लिया था, भविष्य बहुत उज्ज्वल था, लेकिन इसी बीच यह हादसा, जीवन का अचानक अंत और ऐसे में एक कमी जिसके बारे में मेरे मन में बार-बार प्रश्न उठ रहा था, और पता करने पर यह मालूम हुआ कि मेरे इस संबंधी ने जीवन-बीमा नहीं कराया था, असमय मृत्यु की स्थिति में यह सबसे बड़ा सहारा होता है परिवार के लिए, लेकिन यहीं मेरा यह संबंधी चूक गया, बताया गया कि वह इस संबंध में बात कर रहा था, लेकिन असमय मृत्यु ने इसका अवसर ही नहीं दिया और उसकी मृत्यु के बाद परिवार के लिए जो बहुत बड़ा सहारा हो सकता था, वह उनको नहीं मिल पाया।
मैं इसलिए सभी मित्रों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगा कि जीवन और मौत तो इंसान के हाथ में नहीं होता लेकिन यदि इंसान अच्छी राशि का बीमा करा ले तो असमय मृत्यु की स्थिति में यह बहुत बड़ा सहारा बन सकता है।
मुझे सोम ठाकुर जी की हिंदी गज़ल का एक शेर याद आ रहा है, जो उन्होंने बड़े संदर्भ में लिखा था, लेकिन यहाँ भी तो वह लागू होता है-
कोई दीवाना जब होंठों तक अमृत घट ले आया, काल बली बोला मैंने, तुझसे बहुतेरे देखे हैं।
आज यही याद आया और मैंने महसूस किया कि बीमा एक अच्छा निवेश तो नहीं है, लेकिन अगर अचानक मृत्यु आ जाए तो इससे अधिक सहायक कुछ नहीं है।
मेरी उपलब्ध रचनाएं यहाँ शेयर करने का आज पांचवां दिन है, जैसा मैंने पहले कहा, मैं अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में जिस क्रम में कविताएं पहले शेयर की हैं, उसी क्रम में उनको लेकर यहाँ पुनः एक साथ शेयर कर रहा हूँ।
जैसा मैंने पहले भी बताया है, हमेशा ‘श्रीकृष्ण शर्मा’ नाम से रचनाएं लिखता रहा, उनका प्रकाशन/ प्रसारण भी हमेशा इसी नाम से हुआ, नवगीत से संबंधित पुस्तकों/ शोध ग्रंथों में भी मेरा उल्लेख इसी नाम से आया है, लेकिन अब जबकि मालूम हुआ कि इस नाम से कविताएं आदि लिखने वाले कम से कम दो और रचनाकार रहे हैं, इसलिए अब मैं अपनी कविताओं को पहली बार श्रीकृष्ण शर्मा ‘अशेष’ नाम से प्रकाशित कर रहा हूँ, जिससे एक अलग पहचान बनी रहे।
लीजिए आज इस क्रम की इस पांचवीं पोस्ट में दो और रचनाओं को शेयर कर रहा हूँ-
पहले गीत में शाम के कुछ चित्र प्रस्तुत किए हैं, किस प्रकार एक सामान्य शहरी शाम को देखता है-
राख हुआ सूर्य दिन ढले
श्रीकृष्ण शर्मा ‘अशेष’
जला हुआ लाल कोयला
राख हुआ सूर्य दिन ढले।
होली सी खेल गया दिन
रीते घट लौटने लगे,
दिन भर के चाव लिए मन
चाहें कुछ बोल रस पगे,
महानगर में उंडेल दूध,
गांवों को दूधिए चले।
राख हुआ सूर्य दिन ढले।।
ला न सके स्लेट-पेंसिलें
तुतले आकलन के लिए,
सपनीले खिलौने नहीं
प्रियभाषी सुमन के लिए,
कुछ पैसे जेब में बजे
लाखों के आंकड़े चले।
राख हुआ सूर्य दिन ढले।।
एक गीत और जो कवि की ईमानदारी और स्वाभिमान को प्रदर्शित करता है-
एकलव्य हम
मौसम के फूहड़ आचरणों पर व्यंग्य बाण, साधे पूरे दम से, खुद को करके कमान, छूछी प्रतिमाओं को दक्षिणा चढ़ानी थी, यह हमसे कब हुआ।
कूटनीति के हमने, पहने ही नहीं वस्त्र, बालक सी निष्ठा से लिख दिए विरोध-पत्र, बैरी अंधियारे से कॉपी जंचवानी थी, यह हमसे कब हुआ।
सुविधा की होड़ और विद्रोही मुद्राएं, खुद से कतराने की रेशमी विवशताएं, खुले हाथ-पांवों में बेड़ियां जतानी थीं, यह हमसे कब हुआ।
-श्रीकृष्ण शर्मा ‘अशेष’
आज के लिए इतना ही,
आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है।
नमस्कार।