
अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ,
मैं चाहता था चराग़ों को आफ़्ताब करूँ|
राहत इन्दौरी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ,
मैं चाहता था चराग़ों को आफ़्ताब करूँ|
राहत इन्दौरी
आपकी नज़रों में सूरज की है जितनी अज़्मत,
हम चराग़ों का भी उतना ही अदब करते हैं|
राहत इन्दौरी
सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़,
सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गए|
राहत इन्दौरी
चाँद सूरज बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम,
ख़ैर बुझने दो उनको हवा तो चले|
कैफ़ी आज़मी
बाम-ए-मीना से माहताब उतरे,
दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए|
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
पसीने बाँटता फिरता है हर तरफ़ सूरज,
कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूँगा उसे|
राहत इंदौरी
दरिया के पास धूप को बरगद कोई मिला,
दरिया के पास धूप ज़रा काकुली हुई|
सूर्यभानु गुप्त
झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले,
वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे|
राहत इन्दौरी
लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज,
परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे|
राहत इन्दौरी
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको,
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ|
शहरयार