
धूप इतनी कराहती क्यूँ है,
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं|
राहत इन्दौरी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
धूप इतनी कराहती क्यूँ है,
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं|
राहत इन्दौरी
औरों के घर की धूप उसे क्यूँ पसंद हो
बेची हो जिसने रौशनी अपने मकान की|
गोपालदास ‘नीरज’
ऐसी काई है अब मकानों पर,
धूप के पाँव भी फिसलते हैं।
सूर्यभानु गुप्त
बर्फ़ गिरती है जिन इलाकों में,
धूप के कारोबार चलते हैं।
सूर्यभानु गुप्त