आज हिन्दी कविता के शिखर पुरुष स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की प्रेम से, सौन्दर्य से जुड़ी एक लंबी कविता का कुछ अंश मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ| महाप्राण निराला जी की अन्य कविताओं की तरह यह कविता भी लाज़वाब है| लीजिए, आज प्रस्तुत है स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की यह कविता –
घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन।
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ। दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि- चूर्ण हो विच्छुरित विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही बहु रंग-भाव भर शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के, किरण-सम्पात से।
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों विचरते मञ्जु-मुख गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे। प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक- भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में उठी हुई उर्वशी-सी, कम्पित प्रतनु-भार, विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि निश्चल अरूप में।
हुआ रूप-दर्शन जब कृतविद्य तुम मिले विद्या को दृगों से, मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,- शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,- श्रृंगार शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।
याद है, उषःकाल,- प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में, प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की मञ्जरित लता पर, प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर प्रणय-मिलन-गान, प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;
करती विहार उपवन में मैं, छिन्न-हार मुक्ता-सी निःसंग, बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती; मिले तुम एकाएक; देख मैं रुक गयी:- चल पद हुए अचल, आप ही अपल दृष्टि, फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को, इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये ! दूर थी, खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई। अपनी ही दृष्टि में; जो था समीप विश्व, दूर दूरतर दिखा।
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी ज्योति-छबि मेरी, नीलिमा ज्यों शून्य से; बँधकर मैं रह गयी; डूब गये प्राणों में पल्लव-लता-भार वन-पुष्प-तरु-हार कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,- सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल- सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा, सन्देशवाहक बलाहक विदेश के। प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !
(आभार- एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि अपनी ब्लॉग पोस्ट्स में मैं जो कविताएं, ग़ज़लें, शेर आदि शेयर करता हूँ उनको मैं सामान्यतः ऑनलाइन उपलब्ध ‘कविता कोश’ अथवा ‘Rekhta’ से लेता हूँ|)
छायावाद युग के एक स्तंभ महाप्राण निराला, जी हाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की एक कविता आज शेयर कर रहा हूँ| निराला जी का काव्य और उनका रचनाकाल हिन्दी कविता के विकास क्रम में एक महत्वपूर्ण समय है| निराला जी की अनेक कविताएं हमें याद आती हैं जैसे भिक्षुक के बारे में उनकी कविता- ‘वह आता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता’, ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि| उनकी रचना ‘राम की शक्ति-पूजा’ तो हिन्दी कविता के इतिहास में एक मील का पत्थर है|
लीजिए आज प्रस्तुत है निराला जी की यह कविता, जिसमें उन्होंने ‘खंडहर’ के बहाने से हमारे आप्त-पुरुषों को याद किया है –
खंडहर! खड़े हो तुम आज भी? अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज! विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें– करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए?
पवन-संचरण के साथ ही परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज- आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का भेजते सब देशों में; क्या है उद्देश तव? बन्धन-विहीन भव! ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के? अथवा, हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण, निर्निमेष नयनों से बाट जोहते हो तुम मृत्यु की अपनी संतानों से बूँद भर पानी को तरसते हुए?
किम्बा, हे यशोराशि! कहते हो आँसू बहाते हुए– “आर्त भारत! जनक हूँ मैं जैमिनि-पतंजलि-व्यास ऋषियों का; मेरी ही गोद पर शैशव-विनोद कर तेरा है बढ़ाया मान राम-कॄष्ण-भीमार्जुन-भीष्म-नरदेवों ने। तुमने मुख फेर लिया, सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल, हो बसे नव छाया में, नव स्वप्न ले जगे, भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधा-पान।” बरसो आसीस, हे पुरुष-पुराण, तव चरणों में प्रणाम है।
हिन्दी काव्य के गौरव और छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी की एक कविता आज शेयर कर रहा हूँ| ऐसा भी माना जाता है कि निराला जी के काव्य में कविता के आने वाले दौर के, नवगीत के भी अंकुर शामिल थे| निराला जी ने कविता में बहुत प्रयोग किए और अनेक कालजयी रचनाएं दीं, जिनमें ‘राम की शक्ति पूजा’ भी शामिल थी|
लीजिए आज प्रस्तुत है स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी द्वारा रचित, वसंत का वर्णन अपने विशिष्ट अन्दाज़ में प्रस्तुत करने वाली यह कविता –
सखि वसन्त आया । भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया । किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, मधुप-वृन्द बन्दी– पिक-स्वर नभ सरसाया ।
लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर, बही पवन बंद मंद मंदतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया ।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अंचल पृथ्वी का लहराया ।
एक बार फिर छायावाद युग में लौटते हैं और आज मैं उस युग के प्रमुख स्तंभ और हिन्दी कविता के गौरव स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की एक प्रमुख रचना ‘राम की शक्तिपूजा’ का प्रारंभिक और अंतिम भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ|
इस रचना में प्रसंग है कि श्रीराम जी का जब महाबली रावण से युद्ध चल रहा था, उसमें एक दिवस पूर्ण होने के बाद वे शक्ति की उपासना करते हैं| ऐसा माना जाता है कि 1000 कमल पुष्प चढ़ाने से देवी प्रसन्न होती हैं| श्रीराम जी 1000 पुष्प लेकर पूजा में बैठते हैं परंतु देवी उनके साथ कुछ खेल करना या कहें कि परीक्षा लेना चाहती हैं और वे उसमें से एक पुष्प गायब कर देती हैं| अंत में श्रीराम एक पुष्प कम पाते हैं और वे पूजा से उठ भी नहीं सकते थे, तब उनको ध्यान आता है कि सब उनको कमल नयन कहते थे, तो वे एक कमल पुष्प के स्थान पर अपना एक नेत्र, तीर द्वारा निकालकर चढ़ाने को उद्यत होते हैं, तब देवी प्रकट होती हैं और उनका हाथ पकड़कर उनको रोकती हैं और उनको विजय का आशीर्वाद देती हैं|
लीजिए आज प्रस्तुत है महाप्राण निराला की इस प्रसिद्ध रचना का प्रारंभिक और अंतिम अंश-
लौटे युग – दल – राक्षस – पदतल पृथ्वी टलमल, बिंध महोल्लास से बार – बार आकाश विकल। वानर वाहिनी खिन्न, लख निज – पति – चरणचिह्न चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
प्रशमित हैं वातावरण, नमित – मुख सान्ध्य कमल लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर – सकल रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण, श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण, दृढ़ जटा – मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।
आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर सेनापति दल – विशेष के, अंगद, हनुमान नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।
बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल ले आये कर – पद क्षालनार्थ पटु हनुमान अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या – विधान वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर, सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर, पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर, सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर, यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार, खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार, अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल, भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल। स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर – फिर संशय रह – रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय, जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त, एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त, कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार – बार, असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।
ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,- पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,- काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,- गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,- ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,- जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।
सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त, हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त, फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर, फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर, वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,- फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत, देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर, ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;
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कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक, ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय, काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय- “साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!” कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर। ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित, मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग, दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग, मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।
“होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।” कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।