
तल्ख़ियाँ कैसे न हों अशआ’र में,
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब|
जावेद अख़्तर
आसमान धुनिए के छप्पर सा
तल्ख़ियाँ कैसे न हों अशआ’र में,
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब|
जावेद अख़्तर
मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम,
गर्दिश-ए-तक़दीर से हैं गर्दिश-ए-पैमाना हम|
अली सरदार जाफ़री
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए,
इसके बा’द आए जो अज़ाब आए|
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
खुलते भी भला कैसे आँसू मेरे औरों पर,
हँस-हँस के जो मैं अपने हालात बरतता हूँ ।
राजेश रेड्डी
मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ “क़तील”,
ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे।
क़तील शिफ़ाई