
वही तो सबसे ज़ियादा है नुक्ता-चीं मेरा,
जो मुस्कुरा के हमेशा गले लगाये मुझे।
क़तील शिफ़ाई
आसमान धुनिए के छप्पर सा
वही तो सबसे ज़ियादा है नुक्ता-चीं मेरा,
जो मुस्कुरा के हमेशा गले लगाये मुझे।
क़तील शिफ़ाई
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी|
निदा फ़ाज़ली
आज फिर से प्रस्तुत है, एक और पुराना ब्लॉग –
इंटरनेट पर ज्ञान देने वाले तो भरे पड़े हैं, पर मैं अज्ञान का ही पक्षधर हूँ। जो व्यक्ति आज भी दिमाग के स्थान पर दिल पर अधिकतम भरोसा करते हैं, उनमें कवि-शायर काफी बड़ी संख्या में आते हैं। वहाँ भी सभी ऐसे हों, ऐसा नहीं है।
आज मन हो रहा है निदा फाज़ली साहब की शायरी के बारे में कुछ बात करूं। इस इंसान ने कितना अच्छा लिखा है, देख-सुनकर आश्चर्य होता है, पूरी तरह ज़मीन से जुड़े हुए व्यक्ति थे निदा फाज़ली साहब। अपने दोहों में ही उन्होंने आत्मानुभूति का वो अमृत उंडेला है कि सुनकर मन तृप्त हो जाता है।शुरू में तो उसी गज़ल के अमर शेर प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिससे शीर्षक लिया है-
गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला,
चिड़ियों को दाने, बच्चों को, गुड़धानी दे मौला।
फिर मूरत से बाहर आकर, चारों ओर बिखर जा,
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला।
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है,
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला।
और कितनी सादगी से कितनी बड़ी बात कहते हैं, कुछ गज़लों से कुछ शेर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-
उसको रुखसत तो किया था, मुझे मालूम न था,
सारा घर ले गया, घर छोड़ के जाने वाला।
एक मुसाफिर के सफर जैसी है सबकी दुनिया,
कोई जल्दी तो कोई देर में जाने वाला।
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अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।
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घर से मस्ज़िद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
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बच्चों के छोटे हाथों को, चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी, हम जैसे हो जाएंगे।
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दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है,
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।
बरसात का बादल तो, दीवाना है क्या जाने,
किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है।
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वृंदाबन के कृष्ण कन्हैया अल्ला हू,
बंसी, राधा, गीता, गैया अल्ला हू।
एक ही दरिया नीला, पीला, लाल, हरा,
अपनी अपनी सबकी नैया अल्ला हू।
मौलवियों का सज़दा, पंडित की पूजा,
मज़दूरों की हैया हैया, अल्ला हू।
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दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम,
थोड़ी बहुत तो ज़ेहन में नाराज़गी रहे।
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हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना।
मुझको निदा जी के जो शेर बहुत अच्छे लगते हैं, उन सभी को लिखना चाहूं तो दस-बीस ब्लॉग तो उसमें निकल जाएंगे, मैंने कुछ गज़लों से एक- या दो शेर लिखे हैं, लेकिन उनमें से कोई शेर भी छोडने योग्य नहीं है।
अंत में उनके कुछ दोहे, जिनमें बड़ी सादगी से गहरा दर्शन प्रस्तुत किया गया है-
मैं रोया परदेस में, भीगा मां का प्यार,
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी, बिन तार।
छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार,
आंखों भर आकाश है, बांहों भर संसार।
सबकी पूजा एक सी, अलग अलग हर रीत,
मस्ज़िद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत।
सपना झरना नींद का, जागी आंखें प्यास,
पाना, खोना, खोजना, सांसों का इतिहास।
मैंने कुछ शेर यहाँ दिए, क्योंकि यहाँ लिखने की कुछ सीमाएं हैं। इन कुछ उद्धरणों के माध्यम से मैं उस महान शायर को याद करता हूँ, जिसने हिंदुस्तानी शायरी में अपना अनमोल योगदान किया है।
नमस्कार।
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आज उर्दू शायरी के एक और सिद्धहस्त हस्ताक्षर स्वर्गीय कृष्ण बिहारी ‘नूर’ जी की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| नूर साहब भी अपने अलग अंदाज़ के लिए जाने जाते थे|
आइए आज इस अलग क़िस्म की ग़ज़ल का आनंद लेते हैं-
आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में|
और फिर मानना पड़ता है , ख़ुदा है मुझ में|
अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में,
मुझको मुझ से जुदा करके जो छुपा है मुझ में|
मेरा ये हाल उभरती सी तमन्ना जैसे,
वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझ में|
जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जायें,
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में|
आईना ये तो बताता है कि मैं क्या हूँ लेकिन,
आईना इस पे है ख़मोश कि क्या है मुझ में|
अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ “नूर”,
मैं कहाँ तक करूँ साबित कि वफ़ा है मुझ में|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज उर्दू शायरी में अपनी अलग पहचान बनाने वाले, डॉक्टर बशीर बद्र जी की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| बशीर बद्र जी शायरी में प्रयोग करने के लिए विख्यात हैं|
आज मैं उनकी जो ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ, वह एक रूमानी ग़ज़ल है| हमेशा सीरियस बातें तो ठीक नहीं हैं, इसलिए आज इस रूमानी ग़ज़ल का आनंद लीजिए-
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगा,
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा|
तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा,
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लाएगा|
न जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो,
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आएगा |
मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ ,
अगर वो आया तो किस रास्ते से आएगा |
तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है,
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सताएगा |
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू के जो सर्वश्रेष्ठ शायर हुए हैं, उनमें से एक रहे हैं जनाब अहमद फराज़, वैसे तो श्रेष्ठ कवियों/शायरों के लिए सीमाओं का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन यह बता दूँ कि फराज़ साहब पाकिस्तान में थे और उनमें इतना साहस था की उन्होंने वहाँ मिलिटरी शासन का विरोध किया था|
फराज़ साहब की अनेक गज़लें भारत में भी लोगों की ज़ुबान पर रहती हैं| इस ग़ज़ल के कुछ शेर भी गुलाम ली साहब ने गाये हैं| वैसे मैं भी ग़ज़ल के कुछ चुने हुए शेर ही दे रहा हूँ, जिनमें थोड़ी अधिक कठिन उर्दू है, उनको मैंने छोड़ दिया है|
लीजिए प्रस्तुत है यह प्यारी सी ग़ज़ल–
अब के तज्दीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जाना,
याद क्या तुझ को दिलाएँ तेरा पैमाँ जाना|
यूँ ही मौसम की अदा देख के याद आया है,
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इन्सां जाना|
ज़िन्दगी तेरी अता थी सो तेरे नाम की है,
हमने जैसे भी बसर की तेरा एहसां जाना|
दिल ये कहता है कि शायद हो फ़सुर्दा तू भी,
दिल की क्या बात करें दिल तो है नादां जाना|
अव्वल-अव्वल की मुहब्बत के नशे याद तो कर,
बे-पिये भी तेरा चेहरा था गुलिस्ताँ जाना|
मुद्दतों से यही आलम न तवक़्क़ो न उम्मीद,
दिल पुकारे ही चला जाता है जाना जाना|
हम भी क्या सादा थे हमने भी समझ रखा था,
ग़म-ए-दौराँ से जुदा है, ग़म-ए-जाना जाना|
हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है,
हर कोई अपने ही साये से हिरासाँ जानाँ|
जिसको देखो वही ज़न्जीर-ब-पा लगता है,
शहर का शहर हुआ दाख़िल-ए-ज़िन्दाँ जाना|
अब तेरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आये,
और से और हुआ दर्द का उन्वाँ जाना|
हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे,
हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जाना|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज मैं कतील शिफाई जी की एक गजल शेयर कर रहा हूँ| इस गजल के कुछ शेर जगजीत सिंह जी ने भी गाए हैं| बड़ी सुंदर गजल है, आइए इसका आनंद लेते हैं-
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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आज ज़नाब नज़ीर बाक़री जी की लिखी हुई एक गज़ल याद आ रही है, जिसे जगजीत सिंह जी ने अपनी मधुर आवाज में गाकर अमर कर दिया।
इस गज़ल को सुनते हुए यही खयाल आता है कि कैसे अजीब प्राणी होते हैं ये कवि-शायर भी, ज़ुर्म भी क़ुबूल करेंगे और सज़ा भी अपनी पसंद की पाना चाहेंगे। जैसे ये ज़नाब आंखों के समुंदर में डूबकर मरने की सज़ा पाना चाहते हैं।
कुछ शेर इस गज़ल में बहुत अच्छे बन पड़े हैं और यह भी जगजीत सिंह जी की गाई कुछ लोकप्रिय गज़लों में शामिल है। आइए इस गज़ल को फिर से याद करते हैं-
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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आज ज़नाब कृष्ण बिहारी ‘नूर’ जी की एक खूबसूरत सी गज़ल शेयर करने का मन हो रहा है। ‘नूर’ साहब उर्दू अदब के जाने-माने शायर थे, इस गज़ल में कुछ बेहतरीन फीलिंग्स और जीवन का फल्सफा भी है।
वैसे इस गज़ल को जगजीत सिंह जी ने गाया भी है, इसलिए कभी तो आपने इसको सुना ही होगा, लीजिए आज इसको दोहरा लेते हैं-
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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आज डॉ. बशीर बद्र जी की एक गज़ल याद आ रही है, डॉ. बद्र शायरी में एक्सपेरीमेंट करने के लिए जाने जाते हैं, इस गज़ल में भी उन्होंने कुछ बहुत अच्छे शेर कहे हैं। यह भी जीवन की एक सच्चाई है कि बहुत सी बार जब हम ज़िंदगी में जो कुछ तलाश करते हैं, वही नहीं मिलता है।
लीजिए आज इस खूबसूरत गज़ल का आनंद लेते हैं-
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार।
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