
किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रक्खूँ,
सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता|
वसीम बरेलवी
आसमान धुनिए के छप्पर सा
किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रक्खूँ,
सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता|
वसीम बरेलवी
ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।
दुष्यंत कुमार