
बे-हिस दीवारों का जंगल काफ़ी है वहशत के लिए,
अब क्यूँ हम सहरा को जाएँ अब वैसे हालात कहाँ|
राही मासूम रज़ा
आसमान धुनिए के छप्पर सा
बे-हिस दीवारों का जंगल काफ़ी है वहशत के लिए,
अब क्यूँ हम सहरा को जाएँ अब वैसे हालात कहाँ|
राही मासूम रज़ा
आज एक बार फिर से मैं अपने अत्यंत प्रिय शायर ज़नाब निदा फ़ाज़ली साहब की एक ग़ज़ल शेयर कर रहा हूँ| इस ग़ज़ल में वास्तव में उन्होंने भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में अपनी बात कही है और बताया है कि धार्मिक उन्माद में बहने वाले लोग इधर भी हैं और उधर भी| जो सज्जन हैं वे दोनों तरफ परेशान रहते हैं और कट्टर लोगों को दोनों तरफ काफी हद तक संरक्षण प्राप्त है| वास्तव में सच्चा हिन्दू हो या मुसलमान हो, वह कभी दूसरे का नुकसान नहीं करना चाहता लेकिन राजनीति ऐसे कट्टर लोगों की फसल तैयार कराती है|
लीजिए आज प्रस्तुत है निदा फ़ाज़ली साहब कि यह बहुत सुंदर और सार्थक ग़ज़ल –
इंसान में हैवान
यहां भी है वहां भी,
अल्लाह निगहबान
यहां भी है वहां भी|
खूंख्वार दरिंदों के
फक़त नाम अलग हैं,
शहरों में बयाबान
यहां भी है वहां भी|
रहमान की क़ुदरत हो
या भगवान की मूरत,
हर खेल का मैदान
यहां भी है वहां भी |
हिन्दी भी मज़े में है
मुसलमां भी मज़े में,
इंसान परेशान
यहां भी है वहां भी |
उठता है दिलो जां से
धुआं दोनों तरफ़ ही,
ये मीर का दीवान
यहां भी है वहां भी |
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम,
आदमी को भून कर खाने लगे हैं|
दुष्यंत कुमार