चल नगरी में सौदागर हो!

अब हुस्न का रुत्बा आली है अब हुस्न से सहरा ख़ाली है,
चल बस्ती में बंजारा बन चल नगरी में सौदागर हो|

इब्न ए इंशा

नहीं कोई मकाँ मेरा!

मैं जब लौटा तो कोई और ही आबाद था “बेकल”,
मैं इक रमता हुआ जोगी, नहीं कोई मकाँ मेरा|

बेकल उत्साही

हर मोड़ पे रुसवाई!

आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तनहाई,
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुसवाई|

अली सरदार जाफ़री

सौ अहले करम आते हैं!

दिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहीं |
इस के दरवाज़े पे सौ अहले करम आते हैं ||

बशीर बद्र