
अब हुस्न का रुत्बा आली है अब हुस्न से सहरा ख़ाली है,
चल बस्ती में बंजारा बन चल नगरी में सौदागर हो|
इब्न ए इंशा
आसमान धुनिए के छप्पर सा
अब हुस्न का रुत्बा आली है अब हुस्न से सहरा ख़ाली है,
चल बस्ती में बंजारा बन चल नगरी में सौदागर हो|
इब्न ए इंशा
मैं जब लौटा तो कोई और ही आबाद था “बेकल”,
मैं इक रमता हुआ जोगी, नहीं कोई मकाँ मेरा|
बेकल उत्साही
आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तनहाई,
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुसवाई|
अली सरदार जाफ़री
दिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहीं |
इस के दरवाज़े पे सौ अहले करम आते हैं ||
बशीर बद्र
बांधे बंधा न दुनिया के,
जन्मों का बंजारा दिन|
सूर्यभानु गुप्त