
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं,
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है|
मिर्ज़ा ग़ालिब
आसमान धुनिए के छप्पर सा
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं,
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है|
मिर्ज़ा ग़ालिब
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी,
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी|
परवीन शाकिर
साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती,
कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता|
गुलज़ार
दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही,
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया|
निदा फ़ाज़ली
मंज़िल है उस महक की कहाँ किस चमन में है,
उसका पता सफ़र में हवा ने नहीं दिया|
मुनीर नियाज़ी
खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े,
इक ज़रा सी हवा के चलते ही|
मुनीर नियाज़ी
उन चराग़ों में तेल ही कम था,
क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे|
जावेद अख़्तर
हवा खुद अब के हवा के खिलाफ है, जानी,
दिए जलाओ के मैदान साफ़ है, जानी|
राहत इन्दौरी
खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते,
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।
वसीम बरेलवी
मैं उस के जोर को देखूँ वो मेरा सब्र-ओ-सुकूँ,
मुझे चराग़ बना दे उसे हवा कर दे|
राना सहरी