
मुझसे क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिये |
कभी सोने कभी चांदी के क़लम आते हैं ||
बशीर बद्र
आसमान धुनिए के छप्पर सा
मुझसे क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिये |
कभी सोने कभी चांदी के क़लम आते हैं ||
बशीर बद्र
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम,
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं |
निदा फ़ाज़ली
आज फिर से एक पुरानी ब्लॉग पोस्ट शेयर कर रहा हूँ-
अभिव्यक्ति, कविता, शेर-ओ-शायरी, ये सब ऐसे काम नहीं है कि जब चाहा लिख लिया और उसमें गुणवत्ता भी बनी रहे।
दो शेर याद आ रहे हैं इस संदर्भ में-
सचमुच जब कोई रचनाकार कोई अच्छी रचना लिखता है, शेर तो उसकी सबसे छोटी, लेकिन अपने आप में मुकम्मल इकाई है, तो उसके बाद यह चुनौती उसके सामने होती है कि इससे ज्यादा अच्छी रचना अपने पाठकों/श्रोताओं के सामने रखे।
बहुत अधिक कष्ट और चुनौतियां होती हैं ईमानदारी से प्रभावी अभिव्यक्ति को अंजाम देने के लिए। असल में एक अच्छा सृजनशील रचनाकार, दिल से एक अच्छा प्रेमी होता है, जो अक्सर पूरी दुनिया से प्रेम करता है।
वैसे किसी एक व्यक्ति अथवा शक्ति के प्रति अनन्य प्रेम भी अद्वितीय रचनाओं का आधार बन सकता है, लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम और दिव्य होते हैं, जैसे तुलसीदास और उनके ईष्ट श्रीराम, सूरदास और उनके दुलारे श्याम मनोहर।
खैर हम लौकिक सृजन के बारे में ही, हल्की-फुल्की बातें करेंगे। एक गज़ल जो गुलाम अली जी ने गाई है, लेखक हैं परवेज़ जालंधरी,बड़े सुंदर बोल हैं और बड़ी कठिन शर्तें हैं चाहत की-
आज के लिए इतना ही काफी है, वैसे तो कहते हैं ना- हरि अनंत, हरिकथा अनंता, साहित्य के बारे में भी ये बात लागू होती है।
नमस्कार
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