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किसी चराग़ की मानिंद
उजाले बाँटने वालों पे क्या गुज़रती है, किसी चराग़ की मानिंद जल के देखूँगा| राहत इंदौरी
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लहजा बदल के देखूँगा
वो मेरे हुक्म को फ़रियाद जान लेता है, अगर ये सच है तो लहजा बदल के देखूँगा| राहत इंदौरी
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पथरा गईं आँखें!
आज एक बार फिर मैं हिन्दी के वरिष्ठ नवगीतकार श्री बुद्धिनाथ मिश्र जी का एक नवगीत शेयर कर रहा हूँ| मिश्र जी की कुछ रचनाएं मैंने पहले भी शेयर की हैं| लीजिए आज प्रस्तुत है श्री बुद्धिनाथ मिश्र जी का यह नवगीत – उत्खनन में जब मिले अवशेषवर्जना-दंशित समर्पण केदेखकर पथरा गईं आँखें । कमल-दल…
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पहले ही ढल के देखूँगा
मज़ाक़ अच्छा रहेगा ये चाँद-तारों से, मैं आज शाम से पहले ही ढल के देखूँगा| राहत इंदौरी
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आगे निकल के देखूँगा!
सवाल ये है कि रफ़्तार किसकी कितनी है, मैं आफ़्ताब से आगे निकल के देखूँगा| राहत इंदौरी
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तो चल के देखूँगा!
मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा, ये पुल-सिरात* अगर है तो चल के देखूँगा| *स्वर्ग-नरक तक ले जाने वाला पुल राहत इंदौरी
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दिए पलकों पे रक्खे थे!
सहर तक तुम जो आ जाते तो मंज़र देख सकते थे, दिए पलकों पे रक्खे थे शिकन बिस्तर पे रक्खी थी| राहत इंदौरी
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हमें वो दिन दिखाए थे!
इन्हीं साँसों के चक्कर ने हमें वो दिन दिखाए थे, हमारे पाँव की मिट्टी हमारे सर पे रक्खी थी| राहत इंदौरी
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क़िस्मत घर पे रक्खी
मैं अपना अज़्म लेकर मंज़िलों की सम्त निकला था, मशक़्क़त हाथ पे रक्खी थी क़िस्मत घर पे रक्खी थी| राहत इंदौरी
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तुम्हारी याद थी जो!
हमारे ख़्वाब तो शहरों की सड़कों पर भटकते थे, तुम्हारी याद थी जो रात भर बिस्तर पे रक्खी थी| राहत इंदौरी