37. हम सदा जिए झुककर सामने हवाओं के

मेरे न चाहते हुए भी, एनटीपीसी में आने के बाद की मेरी कहानी मुख्य रूप से कुछ नकारात्मक चरित्रों पर केंद्रित होकर रह गई है। वैसे मेरे जीवन में इन व्यक्तियों का बिल्कुल महत्व नहीं है। मैं बस कुछ प्रवृत्तियों को रेखांकित करना चाहता था, आगे भी करूंगा।

जैसा मैंने कहा कि अच्छे व्यक्तियों को ज्यादा फुटेज नहीं मिल पाता। मैंने एनटीपीसी से पहले के प्रसंगों में तो ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है, एनटीपीसी में नहीं किया क्योंकि यहाँ यह नेगेटिव गैंग छा गया। लेकिन मैं यहाँ  कुछ पॉज़िटिव लोगों का उल्लेख अभी करना चाहूंगा। यहाँ मैं ऐसे कुछ लोगों का ही ज़िक्र करूंगा जो मेरे विभाग में थे या मुझसे ऊपर थे। अन्य विभागों के अधिकारियों / साथियों का ज़िक्र किया तो ये किस्सा बहुत लंबा हो जाएगा।

जैसे मेरे पहले बॉस श्री आर.एन.रामजी, बहुत जानकार और पॉज़िटिव इंसान थे, श्री सुधीर चतुर्वेदी जी भी अच्छे इंसान थे और एनटीपीसी छोड़ने के बाद बहुत ऊपर तक गए। श्री एस.के.कपाई और श्री एस.के.आचार्य का ज़िक्र मैं एक साथ करना चाहूंगा। दोनों बहुत अच्छे इंसान थे। फर्क इतना था कि श्री कपाई बहुत भावुक थे और श्री आचार्य बिल्कुल प्रैक्टिकल। श्री कपाई को कंपनी में बहुत झेलना पड़ा वरना उनको डायरेक्टर स्तर तक तो पहुंचना ही चाहिए था।

श्री अविनाश चंद्र चतुर्वेदी ने मुझे भरपूर सहयोग प्रदान किया और वे मेरे साथ हो रहे अन्याय से दुखी भी थे।

यहाँ एक किस्सा सुना देता हूँ, एक पॉज़िटिव अधिकारी का। विंध्याचल परियोजना में रहते हुए ही, जब श्री एस.के.आचार्य हमारे बॉस थे, उस समय केंद्रीय कार्यालय द्वारा सूचित किया गया कि वहाँ पर काफी अधिक अतिरिक्त फर्नीचर है, जो वे परियोजनाओं को देना चाहते हैं। परियोजना की तरफ से मुझे वहाँ भेजा गया, फर्नीचर चुनने और लाने की व्यवस्था के लिए।

केंद्रीय कार्यालय में यह कार्य श्रीमती वेंकटरमण देखती थीं जो वहाँ वरिष्ठ प्रबंधक थीं। मैं उस समय शायद उप प्रबंधक (राजभाषा) के पद पर कार्यरत था। श्रीमती वेंकटरमण से मैं पहले कभी नहीं मिला था और उनके पति उस समय काफी ऊंचे पद पर थे जो कि मेरे कार्यग्रहण के समय हमारे महाप्रबंधक थे।

मैं यहाँ श्रीमती वेंकटरमण की सज्जनता और शालीनता के लिए उनका ज़िक्र कर रहा हूँ। उन्होंने मेरा भरपूर मार्गदर्शन किया, बार-बार ये कहती रहीं कि कोई दिक्कत हो तो मैं उनको बताऊं।

अब सरकारी कामों में ऐसा हो जाता है, मैं 3-4 दिन का अनुमान लगाकर आया था और मुझे वहाँ लगभग एक सप्ताह ज्यादा रहना पड़ा। मेरे पास पैसे खत्म हो चुके थे और मुझे वहाँ से दौरा बढ़ाने का अनुमोदन और एडवांस लेना था। उस समय तक डेबिट कार्ड भी नहीं होते थे। मैं इसके लिए फॉर्म भरकर केंद्रीय कार्यालय में प्रबंधक (राजभाषा) – डा. राजेंद्र प्रसाद मिश्र के पास गया, ऐसा मानते हुए कि वे तो इस पर तुरंत हस्ताक्षर कर देंगे। ये श्रीमान बोले- ‘पंडित जी, कोई और काम हो तो बोलिये, ये तो मैं नहीं कर पाऊंगा। मैं जन संपर्क का काम भी देखता था, सो उसके प्रभारी श्री हिंडवान जी के पास गया, उनसे अनेक बार मीटिंग्स में मुलाकात हुई थी। वे बोले कि मुझको वो जानते ही नहीं हैं।

मैं बिना पैसे के दिल्ली में परेशान था, तब श्रीमती वेंकटरमण के पास गया तो उन्होंने तुरंत हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद जब वित्त विभाग का अधिकारी पैसा देने में आनाकानी कर रहा था, तब श्रीमती वेंकटरमण स्वयं मेरे साथ वहाँ चली गईं। उनको देखते ही वह बोला- ‘अरे आप किनको ले आए!’, फिर श्रीमती वेंकटरमण से बोला, ‘मैडम मैं कर ही रहा था बस!’

अब मैं पॉज़िटिव अधिकारियों की बात कर रहा था, तो इतना ही बता दूं कि श्रीमती वेंकटरमण जैसे बहुत से अधिकारी होंगे, जिनको हम सामान्यतः नोटिस ही नहीं कर पाते, क्योंकि हमारे मस्तिष्क पर कुछ नकारात्मक अधिकारी डेरा जमाए रहते हैं।

शारू रांगनेकर के मैनेजमेंट संबंधी व्याख्यानों में से एक है- ‘दीपशिखा मैनेजर्स’, ये ऐसे प्रबंधक होते हैं, कि नकारात्मकता के वातावरण में, जहाँ-जहाँ ये चलते हैं, सकारात्मकता की रोशनी इनके साथ चलती है।

मैं ऐसे सभी, वास्तव में सकारात्मक आचरण वाले कार्यपालकों और कर्मचारियों को अपनी शुभकामनाएं देता हूँ। ऐसे लोगों के दम पर ही प्रतिष्ठानों की साख बनती है।

मुझे लगा कि कब तक मैं घटिया लोगों का गाना गाता रहूं, इसलिए आज ये किस्सा सुना दिया।

आज मन हो रहा है अपना एक गीत शेयर करने का। पृष्ठभूमि बता दूं, जिस प्रकार कोई संगीतकर साज़ छेड़कर वातावरण में अपनी मनचाही संगीत तरंगे पैदा करता है, वैसे ही माना जाता है कि लोकतंत्र में जनता अपना मन चाहा स्ट्रक्चर तैयार करती है, लेकिन लगता है कि ऐसा हो नहीं पाता, बाकी आप लोग समझदार हैं-

 

हमने कब मौसम का वायलिन बजाया है। 

 

हम सदा जिए झुककर, सामने हवाओं के,

उल्टे ऋतुचक्रों, आकाशी घटनाओं के,

अपना यह हीनभाव, साथ सदा आया है।

 

छंद जो मिला हमको, गाने को

घायल होंठों पर तैराने को,

शापित अस्तित्व और घुन खाए सपने ले,

मीन-मेख क्या करते-

गाना था, गाया है।

 

नत हैं हम अदने भी, शब्द हुए रचना में,

भीड़ हुए सड़कों पर, अंक हुए गणना में,

तस्वीरें, सुर्खियां सदा से ही-

ईश्वर है या उसकी माया है।

हमने कब मौसम का वायलिन बजाया है।

                                                                                                               (श्रीकृष्ण शर्मा)

 नमस्कार।

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36. थोड़ी बहुत तो ज़ेहन में नाराज़गी रहे।

पश्चिमी क्षेत्र मुख्यालय, मुंबई से स्थानांतरित होकर मैंने जनवरी,2001 में उत्तरी क्षेत्र मुख्यालय,लखनऊ में कार्यग्रहण किया, पिकप भवन, गोमती नगर में कार्यालय था और गोमती नगर में सहारा सिटी के पास ही गेस्ट हाउस था, जहाँ मैं लखनऊ पहुंचने पर रुका था।

यहाँ पर कार्यपालक निदेशक थे- श्री जी.पी.सिंह, जिनकी छवि मेरे मस्तिष्क में महात्मा वाली थी। विंध्यनगर में मैं उनके साथ काम कर चुका था। वे भी उस समय तक गेस्ट हाउस में ही रुके थे और शाम के समय वे टहलते हुए मिल गए।

मेरे नमस्कार करने पर वे बोले- ‘मुंबई से क्यों भाग आए?’ यह सवाल मुझे बहुत जोर से झटका देने वाला लगा, खास तौर पर उसके मुख से, जिसकी छवि मेरे मन में महात्मा वाली थी। खैर कुछ समय में ही मुझे मालूम हो गया कि वे भाषण देते समय तो अब भी महात्मा ही होते थे, परंतु व्यवहार के मामले में, वे महात्मा छोड़कर कुछ भी हो सकते थे।

लखनऊ में भी बहुत अच्छे मित्र मिले, दिक्कत यही है कि अच्छे लोगों का ज्यादा ज़िक्र नहीं होता, भले ही वे कितनी भी बड़ी संख्या में हों। छोटे- बड़े, सभी प्रकार के पदों पर बहुत सज्जन लोग मिले, लेकिन फिर भी बड़े पदों पर बैठे कुछ छोटे लोगों का ज़िक्र ज्यादा लंबा हो जाता है, ये मेरा कुसूर नहीं है, बाबा तुलसीदास जी ने भी सबसे पहले खल-वंदना की है, क्योंकि वे बिना बात दायें-बायें होते रहते हैं। कहानी तो तभी बनती है न!

लखनऊ में जाकर पहली बार यह खयाल गंभीरता के साथ आया कि अपना मकान होना चाहिए, वैसे ये खयाल मेरे मन में कभी नहीं आया, मेरी पत्नी के मन में आया और पत्नी और बच्चों ने मिलकर मकान खोजा एक मंज़िल वाला, उसे खरीदा गया और फिर बड़ी हसरतों से उसको ऊपर की ओर बढ़ाया गया, मतलब दो मंज़िला।

अब दफ्तर में क्या है, जो काम है वो करना है वह होता जाता है, अगर कुछ दुष्ट लोग न हों तो कैसे कहानी सुनाएगा कोई। अब यह भी जान लीजिए कि मेरी कहानी में कोई दुष्ट प्राणी था, वो ऊपर भी चला गया मान लो, तब उसकी कहानी कहने से क्या फायदा?

असल में किसी की बुराई करना मेरा उद्देश्य नहीं है। आज और इसके बाद, कोई ऐसा प्राणी अपनी मनमानी न कर पाए, उसको समय पर माकूल जवाब मिल जाए तो कुछ शरीफ लोग बिना बात कष्ट झेलने से बच जाएंगे।

एक दो किस्से, महात्मा जी.पी.सिंह जी के बता देता हूँ। ये मान्यवर पश्चिमी क्षेत्र मुख्यालय के प्रधान थे, दो-तीन ड्राइवर थे मुख्यालय में, जिन्हें कायदे से अन्य लोगों की भी सेवा करनी चाहिए थी, लेकिन वे इनके लिए ही कम पड़ते थे। एक गाड़ी तो इनके यहाँ दो शिफ्ट में चलती थी, मतलब दो ड्राइवर उसमें लगते थे।

श्रीमान जी के पास एक ड्राइवर सुबह 4 बजे पहुंच जाता था, वे उठते 5 बजे तक, गाड़ी में 3-4 किलोमीटर दूर एक पार्क तक जाते, वहाँ गाड़ी से उतरकर दो-चार चक्कर लगाते, फिर वापस घर आते। इस प्रकार उस गरीब की ड्यूटी सुबह 4 बजे से प्रारंभ हो जाती थी।

एक गाड़ी मुख्यतः उनकी एक बेटी की सेवा में रहती थी अधिकतम समय, कभी उनकी मां भी साथ चली जाती थी। कभी बेटी किसी से नाराज़ हो गई तो ऑफिस में फोन करती, पापा उसका ट्रांसफर कर दो, उसने मेरा कहना नहीं माना।

अब लगे हाथ उनकी पत्नी की भी तारीफ कर दें, देहाती महिला थीं लेकिन काम लेने में माहिर थीं। उनके बंगले पर कंपनी की तरफ से एजेंसी का एक चौकीदार रहता था। घनघोर सर्दियों में, जब वह चौकीदार सामने बने छ्ज्जे के नीचे बैठकर ड्यूटी कर रहा था तब यह भद्र महिला बोली कि मेन गेट के पास खुले में बैठो और डंडा बजाते रहो, जिससे मालूम हो कि जाग रहे हो।

वह चौकीदार मुझसे बोला कि अगर यह बुढ़िया एक दिन इस तरह ड्यूटी कर ले तो मैं अपनी पूरी तनख्वाह दे दूंगा।

कितनी कहानी सुनाएं! एक बात और, हमारे मानव संसाधन के बॉस ने ही उनको एक गलत आदत डाल दी थी। वे सप्ताह में एक बार तो दिल्ली स्थित केंद्रीय कार्यालय जाते ही थे। हर बार जाते और वापस आते समय, एक अधिकारी की ड्यूटी लगती थी उनके साथ एयरपोर्ट जाने या वहाँ से उनको लेकर आने के लिए। कुछ लोग तो खैर ऐसे कामों के लिए ही बने होते हैं। एक बार कोई गए और उनकी फ्लाइट मिस हो गई, अब उन्होंने उस अधिकारी को मनहूस की श्रेणी में डाल दिया।

एक बार मेरी भी ड्यूटी लगा दी गई। मैं उनके साथ जाने के लिए, उनके ड्राइंग रूम के एक किनारे पर गेस्ट एरिया में था और उनकी पत्नी काफी दूर किचेन के बाहर, मैंने काफी देर तक देखा कि वे मेरी तरफ मुड़कर देखें तो मैं नमस्कार करूं। लेकिन उन्होंने मेरी तरफ नहीं देखा और मैं नमस्कार नहीं कर पाया। वैसे जिस तरह के लोग उनको प्रिय हैं वे तो अंदर घुसकर चरण-स्पर्श कर आते हैं।

एक बात और कि उनकी पुत्री, जिसका जन्म उस समय हुआ था जब हम लोग एक साथ विंध्यनगर में थे, तो वह मेरे सामने आकर खड़ी हुई, अपनी कमर पर हाथ रखकर। वो यह उम्मीद कर रही थी कि मैं उसको नमस्कार करूंगा और मेरा मानना है कि नमस्कार अगर करना है तो उसको ही करना चाहिए।

खैर इसके बाद मेरे बॉस को शिकायत की गई कि कैसे आदमी को भेज दिया, उसने मेरी बीवी को नमस्ते नहीं की।

और बातें बाद में, फिलहाल निदा फाज़ली साहब की एक गज़ल के कुछ शेर शेयर कर लेते हैं-

बदला न अपने आप को, जो थे वही रहे

मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे।

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम,

थोड़ी बहुत तो ज़ेहन में नाराज़गी रहे।

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी,

हम जिसके भी करीब रहे, दूर ही रहे।

गुज़रो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो,

जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे। 

 

 

नमस्कार।

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35. जहां जाएं वहीं – सूखे, झुके मुख-माथ रहते हैं।

पश्चिम क्षेत्र मुख्यालय, मुंबई में मैंने मई 2000 में कार्यग्रहण किया, यहाँ मेरा दायित्व मुख्य रूप से जनसंपर्क का काम देखने का था।

मुझे पवई क्षेत्र में 14 मंज़िला इमारत में, टॉप फ्लोर पर क्वार्टर मिला, सामने सड़क के पार पवई लेक और एक तरफ हीरानंदानी की अत्यंत आकर्षक सड़कें और इमारतें। पहली बार देखने पर लगा कि जैसे यह यूरोप का कोई इलाका है। कुछ आगे चलकर आईआईटी, पवई थी।

मैं तो दिन में ऑफिस में रहता था लेकिन मेरे परिजनों को अक्सर ऊपर से किसी शूटिंग के दृश्य देखने को मिल जाते थे।

पवई का यह इलाका, अंधेरी पूर्व में आता था और मेरा ऑफिस भी अंधेरी पूर्व में ही था, सीप्ज़ के पास। मुंबई में मैंने यह खास बात देखी कि ऑटो स्टैण्ड पर ही लोग ऑटो शेयर कर लेते थे। 10-12 रुपये लगते थे एक शेयर्ड  सवारी के रूप में ऑफिस जाने के लिए।

इस प्रकार मैं एक संकट से बचा हुआ था, भारी भीड़ के समय लोकल ट्रेन में यात्रा करने का संकट, वास्तव में इसके लिए विशेष कौशल की ज़रूरत है। शुरू के दिनों में एक बार तो मैंने अपना चश्मा गंवा दिया था। मुंबई की लोकल में चश्मा और मोबाइल संभालकर रखना आसान काम नहीं है।

ड्यूटी जाने के लिए मुझे लोकल में यात्रा करने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन मैं मुंबई घूमना तो चाहता था, विशेष रूप से समुंदर का किनारा। इसलिए वहाँ पहुंचने के एक-दो महीने बाद ही मैंने लोकल ट्रेन का मासिक पास बनवा लिया था, मैं अक्सर शाम को ऑफिस के बाद अंधेरी से लोकल पकड़कर आखिरी स्टेशन तक चला जाता था, समुंदर के किनारे कुछ समय टहलकर वापस घर आता था।

अब कुछ बात ऑफिस की कर लेते हैं, मुंबई पहुंचने के बाद मैंने वहाँ के कुछ स्थानीय अखबारों के साथ अच्छे संबंध बना लिए थे, विशेष रूप नवभारत के महाप्रबंधक तथा एक-दो और पत्रकारों के साथ प्रेस क्लब जाता था और अपने ईडी- श्री आर.डी. गुप्ता के कई साक्षात्कार, काफी प्रमुखता से छपवाए। वहाँ की गृह पत्रिका तो नियमित रूप से छपती ही थी।

लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगा कि यहाँ अपने निष्पादन से प्रसन्न करने वाले लोगों की ज़रूरत नहीं है। एक तो केंद्रीय कार्यालय में श्रीमान स्वतंत्र कुमार जी बैठे हुए थे, जो इस प्रयास में लगे थे कि मुझे किसी ऐसे स्टेशन पर भेज दें, जिसे एनटीपीसी में काला-पानी माना जाता हो। दूसरे मुंबई कार्यालय में एक थे श्रीमान एस.एस.राजू, जो बहुत बड़े पॉवर ब्रोकर, शुद्ध भाषा में कहें तो दलाल थे।

इन श्रीमान राजू जी को ऐसा लग गया कि चतुर्वेदी जी, मुझको वहाँ इनके खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए ले गए हैं। अब उनके मन में ऐसा रहा भी हो तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन मैं किसी के खिलाफ इस्तेमाल की चीज़ नहीं हूँ।

श्री चतुर्वेदी मुंबई से स्थानांतरित होकर लखनऊ जा चुके थे, जहाँ कंपनी का उत्तरी क्षेत्र मुख्यालय है, और इसके बाद श्रीमान राजू के मंत्रजाल में श्री आर.डी.गुप्ता फंस गए और जैसे भी हो, मेरा ट्रांसफर लखनऊ हो गया।

श्रीमान राजू जी के बारे में माना जाता है कि इनकी जान-पहचान मंत्रालय में बड़े अधिकारियों से है। अब कंपनी में उच्च पदों पर बैठे लोग तो ऐसे दलालों की मुट्ठी में रहते हैं।

मुझे मालूम है कि बाद में पश्चिम क्षेत्र के ईडी रहे श्री एच.एल.बजाज, जब सीएमडी बनने की रेस में थे, तब उनकी  तरफ से मंत्रालय में पैरवी करने के लिए, श्रीमान राजू लगभग एक महीने तक, सरकारी दौरे पर दिल्ली में रहे थे। ये अलग बात है कि श्री बजाज सीएमडी नहीं बन पाए, हो सकता है दूसरी तरफ से जो दलाल लगा था, वो ज्यादा मज़बूत रहा हो।

खैर मुंबई में मेरा ऑफिशियल प्रवास रहा- कुल मिलाकर 8 महीना 8 दिन। मुंबई नगरी में रहने का लालच ऐसा कि मैं क्वार्टर में लगभग एक साल तक रहा। एक बात यह भी कि मेरे बेटे ने दिल्ली से पढ़ाई छोड़कर मुंबई यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन शुरू किया और वहाँ की उसकी एक वर्ष की पढ़ाई बेकार ही गई।

सच्चाई तो यह है कि मुंबई में फिल्मी और टीवी स्टूडियो के जो सपने बुने थे, उस बारे में तो ठीक से सोच भी नहीं पाया कि वहाँ से फिसलकर लखनऊ आ गया।

खैर जो भी हो मुझे एक वर्ष मुंबई में रहना अच्छा लगा। ये लंबा चलता तो और अच्छा लगता।

आज ओम प्रभाकर जी का एक गीत शेयर कर लेता हूँ-

 

यात्रा के बाद भी

 पथ साथ रहते हैं।

खेत, खंभे, तार सहसा टूट जाते हैं,

हमारे साथ के सब लोग हमसे छूट जाते हैं।

फिर भी हमारी बांह, गर्दन, पीठ को छूते

गरम दो हाथ रहते हैं।

 

घर पहुंचकर भी न होतीं खत्म यात्राएं

गूंजती हैं सीटियां, अब हम कहाँ जाएं।

जहां जाएं वहीं सूखे, झुके

मुख-माथ रहते हैं।

                          (ओम प्रभाकर)

 

नमस्कार।

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34. टूटी आवाज़ तो नहीं हूँ मैं

अक्सर मैं ब्लॉग लिखने के बाद, सोचता हूँ कि इसमें कौन सी कविता डालनी है, क्या शीर्षक देना है। आज शुरू में ही कुछ काव्य पंक्तियां याद आ रही हैं और उनमें से ही शीर्षक भी, तो शुरू में ही दे देता हूँ, यहाँ तो अपना ही अनुशासन है ना!

हम सबके माथे पर शर्म,

हम सबकी आत्मा में झूठ,

हम सबके हाथों में टूटी तलवारों की मूठ,

हम हैं सैनिक अपराजेय!

                        ( डा. धर्मवीर भारती)

 

फैली है दूर तक परेशानी,

तिनके सा तिरता हूँ तो क्या है,

तुमसे नाराज़ तो नहीं हूँ मैं।

 

मैं दूंगा भाग्य की लकीरों को

रोशनी सवेरे की,

देखूंगा कितने दिन चलती है

दुश्मनी अंधेरे की।

मकड़ी के जाले सी पेशानी

साथ लिए फिरता हूँ तो क्या है

टूटी आवाज़ तो नहीं हूँ मैं।

                        (श्री रमेश रंजक)

एक कवि थे, गाज़ियाबाद के, रमेश शर्मा जी, मंचों पर सक्रिय नहीं थे परंतु बहुत अच्छे गीत लिखे हैं उन्होंने, दो पंक्तियां तो गांव की दशा का अच्छा खासा बयान करती हैं-

ना वे रथवान रहे, ना वे बूढ़े प्रहरी,

कहती टूटी दीवट, सुन री उखड़ी देहरी।

(दीवट- दिया रखने के लिए बना छोटा सा आला)

 (और जब वे लंबा आलाप लेकर गाते थे, तब दिव्य माहौल बन जाता था)

उनके एक गीत की कुछ पंक्तियां-

तू न जिया न मरा।

ज्यों कांटे पर मछली, प्राणों में दर्द पिरा।

औषधि जल, तुलसी-दल, सिरहाने बिगलाया,

मां ने ईंधन कर दी, अपनी उत्फुल काया,

धरती पर देह धरम, आजीवन हूक भरा।

 

सहजन की डाल कटी, ताल पर जमी काई,

कथा अब नहीं कहता, मंदिर वाला साईं,

वैष्णव जन ही जाने, वैष्णव जन का दुखड़ा।

 

 

एक और –

कैसे बीते दिवस हमारे

हम जानें या राम।

सुन रे जल, सुन री ओ माटी

सुन रे ओ आकाश।

सुन रे ओ प्राणों के दियना,

सुन रे ओ वातास,

दुख की इस तीरथ यात्रा में

पल न मिला विश्राम।

हम जानें या राम।

कविताएं शेयर करने का काम फिलहाल इतना ही। अपनी राम कहानी में यह कि 12 वर्ष तक विंध्याचल परियोजना में रहने के बाद मैं प्रबंधक बन गया था, कोई चांस नहीं लग रहा था यहाँ से कहीं और जाने का, लेकिन मुंबई कार्यालय, पश्चिम क्षेत्र मुख्यालय में, विशेष रूप से जनसंपर्क का काम देखने के लिए एक अधिकारी की आवश्यकता थी, वैसे भी मुंबई नगरी बहुतों को आकर्षित करती है, मुझे तो हमेशा से करती रही है। पदोन्नति के समय मैंने मुंबई का विकल्प दिया था।

हमारे बॉस रहे श्री अविनाश चंद्र चतुर्वेदी जी मुंबई में मानव संसाधन विभाग के प्रमुख बन गए थे, उनसे अनुरोध किया और उनके प्रयास से मेरा स्थानांतरण भी हो गया मुंबई में, और इस प्रकार नए सपने लेकर मैं उस मायानगरी में पहुंचा।

एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी- ‘कांक्वरर्स ऑफ द गोल्डन सिटी’ बड़े शहर में अक्सर लोग ऐसे ही इरादे लेकर जाते हैं, जैसे शायद धीरू भाई अंबानी लेकर गए होंगे। लेकिन अधिकांश के साथ महानगर, इसका कुछ उल्टा ही करता है।

वैसे किस्मत भी अजीब चीज़ होती है। मुझे नीता जी का किस्सा याद आ गया, जो उन्होंने खुद कहीं शेयर किया था। जान-बूझकर मैं अभी पूरा नाम नहीं लिख रहा हूँ। तो नीता जी उन दिनों नृत्य के कार्यक्रम प्रस्तुत करती थीं। एक रोज़ उनके घर फोन आया- ‘मैं धीरूभाई अंबानी बोल रहा हूँ’। उन्होंने कहा मैं क्लिओपेट्रा बोल रही हूँ (शायद कोई और प्रसिद्ध नाम बोला था, मुझे यह याद आ रहा है) और कहकर फोन रख दिया। उनको लग रहा था कि कोई मज़ाक कर रहा है। ऐसा दो-तीन बार हुआ, उसके बाद उन्होंने फोन उठाना बंद कर दिया। बाद में जब फोन बज रहा था तो उनके पिता ने फोन उठाया तब अंबानी जी ने उनको बताया कि उनके बेटे (मुकेश अंबानी) ने नीता जी का प्रोग्राम देखा था, वे उनको बहुत पसंद आईं और वे शादी की बात करने आना चाहते हैं। ऐसे होता है, जब किस्मत जबर्दस्ती पीछे पड़ जाती है। इस प्रकार नीता जी, नीता अंबानी हो गईं।

खैर, मैं भी मुंबई गया क्योंकि कंपनी मुंबई में रहने के लिए क्वार्टर दे रही थी, नौकरी तो करनी ही थी, उसके अलावा मुंबई क्या कुछ नहीं दे सकती, किसी भी फील्ड में, मेरे सपने क्रिएटिव फील्ड से जुड़े थे।

जिस तरह देश पुकारता है, मुझे लगता था कि मुंबई में बने फिल्मी स्टूडिओ, टीवी चैनल, मेरा ही इंतज़ार कर रहे हैं।

अब आगे की कहानी बाद में कहेंगे,

फिलहाल नीरज जी का एक मुक्तक-

खुशी जिसने खोजी वो धन लेके लौटा

हंसी जिसने खोजी चमन लेके लौटा

मगर प्यार को खोजने जो चला वो,

न तन लेके लौटा, न मन लेके लौटा।

 

 

 नमस्कार।

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33. कैसे मनाऊं पियवा, गुन मेरे एकहू नाहीं।

इस प्रस्ताव को सहमति मिल गई थी कि एनटीपीसी के स्थापना दिवस के अवसर पर, विंध्याचल परियोजना में नितिन मुकेश जी, अथवा दो-तीन फिल्मी गायक और थे, उनमें से किसी एक को चुनकर आमंत्रित किया जाए, इसके लिए तीन सदस्यों की एक समिति को मुंबई भेजा गया, इसमें मेरे अलावा एक कर्मचारी कल्याण परिषद के महासचिव थे और एक वित्त विभाग के प्रतिनिधि थे।

मेरे बाकी दो साथियों के लिए नितिन मुकेश जी भी वैसे ही थे, जैसे बाकी विकल्प थे, इसलिए मुझे इस विकल्प पर ज्यादा जोर लगाना था, खैर परिस्थितियों ने भी साथ दिया और हम नितिन जी के विकल्प पर मुहर लगाने वाले थे।

हम नितिन जी के घर पहुंचे और मुझे श्रीमती मुकेश जी के चरण स्पर्श करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ,जो व्हील चेयर पर थीं। घर में जहाँ पुरस्कारों की विशाल प्रदर्शनी लगी थी वहीं नील नितिन मुकेश के स्कूल की किसी सांस्कृतिक गतिविधि में पुरस्कृत होने का प्रमाण पत्र भी दीवार पर टंगा था। उस समय नील स्कूल में पढ़ रहे थे।

अपनी परंपरा के अनुसार हमने अनुबंध का एक ड्राफ्ट, नितिन जी को हस्ताक्षर करने के लिए दिया, जिसमें एक पंक्ति कुछ इस प्रकार थी- ‘दोनों पक्ष हर स्थिति में अनुबंध के अनुसार यह कार्यक्रम संपन्न करेंगे।‘

इस पर नितिन जी ने कहा- ‘शर्माजी, सब कुछ तो इंसान के हाथ में नहीं होता, कुछ चीज़ें तो ऊपर वाला अपने हाथ में रखता है।‘ इसके बाद उस पंक्ति को इस तरह लिखा गया- ‘दोनो पक्ष अनुपालन का पूर्ण प्रयास करेंगे।’

इसके बाद मुझे एक घटना रीवा की मालूम हुई, जहाँ नितिन जी कार्यक्रम के लिए गए थे, लेकिन जोरदार बारिश के कारण उस दिन कार्यक्रम नहीं हो पाया, नितिन जी अगले दिन रुके, कार्यक्रम के शुरू में बूंदाबांदी हो रही थी, लेकिन नितिन जी ने, अपनी परंपरा के अनुसार- ‘मंगल भवन, अमंगल हारी’ से कार्यक्रम का प्रारंभ किया और जो छाते खुले थे, वे धीरे-धीरे बंद हो गए, और फिर कार्यक्रम पूरा होने के बाद ही जोरदार बारिश हुई।

खैर, जैसा कार्यक्रम तय किया गया था, उसके हिसाब से नितिन जी फ्लाइट लेकर और उनकी टीम के सदस्य ट्रेन द्वारा, वाराणसी पहुंचे। वाराणसी के सिगरा क्षेत्र में उस समय एनटीपीसी का गेस्ट हाउस था जहाँ नितिन जी की टीम के सदस्यों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी और नितिन जी के लिए पास के एक होटल में प्रबंध किया गया था, परंतु नितिन जी ने कहा कि वे टीम के साथ ही रुकेंगे। उनकी टीम में कुछ सदस्य, उनके पिता के समय से हैं, एक हैं जिनको वे मामा कहते थे।

नितिन जी के एक साथी ने बताया कि मुकेश जी जहाँ अपना हारमोनियम बजाते हुए, डूबकर गाना गाते रहते थे, वहीं नितिन जी पूरा धमाल मचाते हैं।

अपनी परंपरा के अनुसार नितिन जी वाराणसी के मंदिरों में गए, उन्होंने बताया कि इधर आने में उनको एक लाभ यह भी लगा कि वे मंदिरों के दर्शन कर लेंगे। दर्शन के समय मैं उनके साथ था। उन्होंने गौदोलिया चौक पर पुलिस वाले को अपना कार्ड दिखाया, उसके बाद एक पुलिस वाला हमारे साथ रहा और सभी जगह हमने वीआईपी दर्शन किए।

काशी विश्वनाथ मंदिर के बाहर हर दुकानदार उनसे कहता रहा कि आपके पिता जी हमारे यहाँ से ही सामग्री खरीदते थे, आप भी हमसे ही सामान लीजिए।

गंगा घाट पर तीन तरह के लोग मिले, एक जो नितिन जी को पहचानते थे, दूसरे जो उनको शम्मी कपूर समझ रहे थे और तीसरे वे जो उनको अंग्रेज समझ रहे थे।

वाराणसी से हम विंध्यनगर आए, शाम को मुक्ताकाश प्रेक्षागृह में उनका कार्यक्रम था। उन्होंने अपनी परंपरा के अनुसार ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ के साथ अपना कार्यक्रम प्रारंभ किया और उसके बाद, मुकेश जी के 15-20 अमर गीत एक के बाद एक,  सुना दिए, फर्माइशें पूरा करने से पहले, क्योंकि उनका कहना था कि एक बार फास्ट गानों का सिलसिला शुरू हो जाएगा, तब शायद इन गीतों के लिए माहौल नहीं रह पाएगा।

अब अगर गीतों का ज़िक्र करूं तो किनका करूं? सैंकड़ों फर्माइशी पर्चियां तो ऐसी हैं, जिनका नंबर आ ही नहीं पाया। संगीत के प्रोग्राम तो पहले भी बहुत हुए थे, लेकिन श्रोताओं में इतना उत्साह कभी नहीं देखा गया। महफिलें जमाने वाले तो हज़ारों गीत हैं, किस-किसका ज़िक्र करूं?

लेकिन कुछ गीतों का ज़िक्र इसलिए कर दे रहा हूँ, क्योंकि संभव है, नई पीढ़ी के कुछ लोगों को उनके नाम से ये गीत न याद हों- ‘होठों पे सच्चाई रहती है, कहीं दूर जब दिन ढ़ल जाए, तौबा ये मतवाली चाल, रुक जा ओ जाने वाली रुक जा, सारंगा तेरी याद में, सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, झूमती चली हवा, मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, मैं पल दो पल का शायर हूँ, देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, ओ महबूबा, तेरे दिल के पास ही है मेरी, मंज़िल ए मक़सूद  आदि  …  सैंकड़ों गीत मैं लिख सकता हूँ, जो आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं।

  मुकेश जी का स्मरण करते हुए, मैं उनके गाए कुछ ऐसे गीतों की पंक्तियां यहाँ दे रहा हूँ, जो शब्दों और प्रस्तुति, दोनों के लिहाज़ से, अलग तरह के हैं-

कैसे मनाऊं पियवा, गुन मेरे एकहू नाहीं।

आई मिलन की बेला, घबराऊं मन माही।

 

साजन मेरे आए, धड़कन बढ़ती जाए,

नैना झुकते जाएं, घूंघट ढलका जाए,

तुझसे क्यों शर्माये, आज तेरी परछाई।

 

मैं अनजान पराई, द्वार तिहारे आई,

तुमने मुझे अपनाया, प्रीत की रीत सिखाई,

हाय रे मन की कलियां, फिर भी खिल ना पाईं।

एक और गीत की कुछ पंक्तियां –

पुकारो, मुझे नाम लेकर पुकारो,

मुझे इससे अपनी खबर मिल रही है।

कई बार यूं भी हुआ है सफर में,

अचानक से दो अजनबी मिल गए हों,

जिन्हें रूह पहचानती हो अज़ल से,

भटकते-भटकते वही मिल गए हों।

कुंवारे लबों की कसम तोड़ दो तुम,

ज़रा मुस्कुराकर बहारें संवारो।

 

खयालों में तुमने भी देखी तो होंगी

कभी मेरे ख्वाबों की धुंधली लकीरें,

तुम्हारी हथेली से मिलती हैं जाकर,

मेरे हाथ की ये अधूरी लकीरें।

बड़ी सर चढ़ी हैं ये ज़ुल्फें तुम्हारी,

ये ज़ुल्फें मेरी बाज़ुओं में उतारो।  

 

पुकारो, मुझे नाम लेकर पुकारो,

मुझे इस से अपनी खबर मिल रही है।।

और इसके बाद आखिर में-

ज़िंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं, कुछ और भी है।

ज़ुल्फ-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं, कुछ और भी है।

भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में,

इश्क़ ही एक हक़ीकत नहीं कुछ और भी है।

तुम अगर नाज़ उठाओ, तो ये हक़ है तुमको,

मैंने तुमसे ही नहीं, सबसे मोहब्बत की है।

इन शब्दों के साथ, नितिन जी के कार्यक्रम के बहाने मैं अपने प्रिय गायक, मुकेश जी की स्मृतियों को विनम्र श्रद्धांजलि देता हूँ और कामना करता हूँ कि नितिन जी लंबे समय तक, मुकेश जी के गीतों का अमृत पान श्रोताओं को कराते रहें।

अंत में मन हो रहा है कि मैं अपना एक गीत शेयर करूं। यह गीत मैंने दिल्ली में, सर्दी की एक रात में, ट्रेन से शाहदरा लौटते हुए लिखा था, जब मैं मुकेश जी का गीत ( मैं ढ़ूंढ़ता हूँ उनको) गुनगुना रहा था। ये पैरोडी नहीं है, सिर्फ मुखड़े की पंक्तियों को ध्यान में रख सकते हैं-

रात शीत की  

रजनी गुज़र रही है, सुनसान रास्तों से

गोलाइयों में नभ की, जुगनू टंके हुए हैं।

 

हर चीज़ पर धुएं की,एक पर्त चढ़ गई है,

कम हो गए पथिक पर, पदचाप बढ़ गई है,

यह मोड़ कौन सा है, किस ओर जा रहा मैं,

यूं प्रश्न-चिह्न धुंधले, पथ पर लगे हुए हैं।

 

अब प्रश्न-चिह्न कल के, संदर्भ हो गए हैं,

कुछ तन ठिठुर- ठिठुरकर, निष्कंप सो गए हैं,

कितने बंटे हैं कंबल, अंकित है फाइलों में,

फुटपाथ के कफन पर, किसके गिने हुए हैं।

 

अब सो चुकी है जल में, परछाइयों की बस्ती,

चंदा ही खे रहा है, बस चांदनी की कश्ती,

चिथड़ों में गूंजती हैं, अब कर्ज़दार सांसें,

पर ब्याज के रजिस्टर, अब भी खुले हुए हैं।

                                                                      (श्रीकृष्ण शर्मा)

आज कुछ ज्यादा समय ले लिया आपका, नमस्कार।

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32. मैं बोला मैं प्रेम दिवाना इतनी बातें क्या जानूं।

विंध्याचल परियोजना में 12 वर्ष का प्रवास, बहुत घटनापूर्ण था और निराशा भी बहुत बार हुई इस दौरान। एक पदोन्नति समय पर मिल गई, जिससे भद्रजनों की भृकुटियां तन गईं, हिंदी अधिकारी और समय पर पदोन्नति, इसके बाद उन्होंने भरपूर कोशिश की कि कोई पदोन्नति समय पर न मिल पाए। कुछ बौने सीढ़ियों पर काफी ऊपर चढ़ चुके थे इस बीच, स्वतंत्र कुमार जैसे।

खैर, एक महत्वपूर्ण घटना जो छूटी जा रही थी, अभी बता दूं, मेरी मां जो अधिकतम समय दिल्ली में ही रहीं, उनका अंतिम समय आ गया था। उस समय मोबाइल फोन तो नहीं थे हमारे पास, शायद प्रचलन में भी नहीं थे। विंध्यनगर, मध्य प्रदेश के सीधी जिले में, टेलीफोन की स्थिति भी ऐसी थी उस समय कि बड़ी मुश्किल से घंटी बजती थी। मेरे संबंधी, जिनके नज़दीक मेरी मां रहती थीं, उन्होंने टेलीग्राम भेजा ‘मदर सीरियस, कम सून’। यह टेलीग्राम पाकर मैं तुरंत दिल्ली गया। मालूम हुआ कि मां की मृत्यु हुए एक सप्ताह बीत चुका था। वहाँ किसी को यह विश्वास दिलाना मुश्किल था कि टेलीग्राम मुझे एक सप्ताह के बाद मिला है, और जो उन्होंने मृत्यु होने पर भेजा था, वह मेरे वहाँ से चलने तक नहीं मिला था।

दरअसल, टेलीग्राम जो बाहर से आते थे, वे हमारे तहसील नगर ‘वैढ़न’ में आते थे और वहाँ से वे लोग कब, उसको चिट्ठी की तरह आगे भेजेंगे, यह पूरी तरह उनकी कृपा पर निर्भर होता था। अब तो खैर ‘टेलीग्राम’ नाम की यह बला पूरी तरह समाप्त ही हो चुकी है।

मेरी मां को बहुत भरोसा था कि मैं उनके अंतिम समय में तो उनके पास रहूंगा। मेरी भाभी (वकील साहब की पत्नी) ने मेरी मां से कहा, ‘बुआ किशन तो नहीं आया!’, तब शायद अपने विश्वास से लड़ते हुए मां ने कहा, ‘क्या करूं नहीं आया तो?’

अब अगली बात पर चलते हैं। एक बार फिर कह दूं कि मैं राज कपूर जी का और मुकेश जी का परम भक्त हूँ। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुकेश जी शास्त्रीय संगीत में पारंगत नहीं थे। वैसे इसका सही उत्तर कल्याण जी ने किसी व्यक्ति को दिया था, जो मुकेश जी को देखकर उनसे बोला था कि देखो ये इतनी महंगी गाड़ी में घूमते हैं और मैं जो शास्त्रीय संगीत में निपुण हूँ, मेरी कोई पहचान नहीं है।

कल्याण जी ने उससे कहा कि आप ‘चंदन सा बदन’ उनके जैसा गाकर दिखा दो, मैं अगला गीत आपको दे दूंगा। जाहिर है उन सज्जन के लिए ऐसा करना संभव नहीं था।

खैयाम साहब ने मुकेश जी के लिए एक प्रोग्राम में कहा था- ‘तू पुकारे तो चमक उठती हैं, आंखें सबकी, तेरी सूरत भी है शामिल, तेरी आवाज़ में यार’।

जिस समय मुकेश जी जीवित थे और कार्यक्रमों में गाते थे, उस समय तो मैं ऐसी स्थिति में नहीं रहा कि उनका कार्यक्रम करा सकूं, लेकिन एनटीपीसी में आने के बाद, जब मुझको कार्यक्रमों के आयोजन से जुड़ने का मौका मिला, तब से जब भी ऐसा हुआ कि कोई बड़े स्तर का संगीत का कार्यक्रम आयोजित करने की बात हुई, तब हमेशा मेरे मन में जो पहला नाम आता था, वह होता था- नितिन मुकेश जी का।

नितिन जी ने खुद भी कुछ बहुत अच्छे गीत गाए हैं फिल्मों में, जैसे एक गीत जो मुझे बहुत प्रिय है, वह है- ‘सो गया ये जहाँ, सो गया आस्मां, सो गई हैं सारी मंज़िलें, सो गया है रस्ता’। और भी अनेक गीत हैं, लेकिन जो स्थान मुकेश जी का है, फिल्म-संगीत प्रेमियों के दिल में, उसको छूना तो किसी और के लिए बहुत मुश्किल है।

नितिन जी की बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने कार्यक्रमों के माध्यम से मुकेश जी के उस युग को फिर से जीवंत कर देते हैं। एक बार जब वे मुकेश जी के गीत गाना प्रारंभ करते हैं, तब पता ही नहीं चलता कि कब रात के प्रहर बदलते चले जाते हैं।

जैसा मैंने कहा, जब भी संगीत के बड़े कार्यक्रम की बात चलती, मेरे मुह से नितिन मुकेश जी का नाम निकलता था, कई बार मेरा ये स्वर ‌बड़ी आवाज़ों के बीच दब गया, लेकिन आखिर वह समय आ ही गया जब यह आयोजन एक हक़ीकत का रूप ले सका।

मुकेश जी से जो लोग मिले हैं, उन्होंने अपने संस्मरणों में कहा है कि वैसा सरल हृदय और उदार व्यक्ति उन्होंने दूसरा नहीं देखा, और जो महसूस कर सकते हैं, वे कहते हैं कि यह सज्जनता उनकी आवाज़ में झलकती है, जो सीधे दिल से निकलती है और दिल में उतर जाती है।

यह भी सच्चाई है कि जब तक मुकेश जी जीवित थे, तब तक किसी पुरुष गायक को इतने फिल्मफेयर एवार्ड नहीं मिले थे, जितने मुकेश जी को मिले थे। हालांकि मुकेश जी ने हीरो बनने की धुन में बहुत समय तक फिल्मों में गाने नहीं गाए थे। उनके गाए गीतों की संख्या रफी साहब और किशोर कुमार जी से बहुत कम है, लेकिन जब अमर गीतों की बात आती है, तब कहानी कुछ और ही होती है।

अंततः नितिन मुकेश जी का कार्यक्रम हमने आयोजित किया, उसका पूरा विवरण अगले ब्लॉग में दूंगा, फिलहाल मुकेश जी की स्मृति में उनका गाया एक भजन यहाँ दे रहा हूँ-

सुर की गति मैं क्या जानूं

एक भजन करना जानूं।

अर्थ भजन का भी अति गहरा

उसको भी मैं क्या जानूं,

प्रभु,प्रभु,प्रभु जपना जानूं मैं,

अंखियन जल भरना जानूं।

 

गुण गाए प्रभु न्याय न छोड़ें

फिर क्यों तुम गुण गाते हो,

मैं बोला मैं प्रेम दिवाना

इतनी बातें क्या जानूं।  

नमस्कार।

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31. नींद भी खुली न थी, कि हाय धूप ढल गई, पांव जब तलक उठे, कि ज़िंदगी फिसल गई,

 विंध्याचल परियोजना में प्रवास का ब्यौरा और ज्यादा लंबा नहीं चलेगा, अब इसको जल्दी ही समाप्त करना  होगा। कवि सम्मेलनों जो कुछ अपनी उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ उसका ज़िक्र कर लेता हूँ। यह मेरा सौभाग्य ही था कि उस समय जहाँ नीरज जी जैसे महान गीतकार से निकट परिचय हो गया था, वहीं सोम ठाकुर जी, डॉ. कुंवर बेचैन जी, किशन सरोज जी, कैलाश गौतम जी, पं. चंद्र शेखर मिश्र जी, पटना के श्रेष्ठ कवि एवं संचालक श्री सत्यनारायण जी, ओम प्रकाश आदित्य जी आदि अनेक कवि थे जिनसे व्यक्तिगत मित्रता हो गई थी। डॉ. बेचैन तो पहले से मेरे गुरुतुल्य थे।

लेकिन कुछ कवि ऐसे भी थे, जिनको बुलाना मुझको नहीं जंचा, कारण जो भी हों। इनका ज़िक्र कर लेता हूँ। इनमें से एक तो कोई त्रिपाठी जी थे, लखनऊ में केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाते थे। हुआ यूं कि मैं आकाशवाणी लखनऊ में गया, वहाँ जो कार्यक्रम निष्पादक थे, उनसे मिलकर यह जानने कि वहाँ के कुछ श्रेष्ठ कवि कौन से हैं, जिनको बुलाया जा सकता है।

दुर्भाग्य से कार्यक्रम निष्पादक नहीं मिले और उनके कमरे में यह सज्जन मिल गए। (अब मुझे लगता है कि शायद  इन सज्जन से बचने के लिए ही कार्यक्रम निष्पादक अपने कमरे से दूर चले गए हों।) खैर त्रिपाठी जी ने अपनी इतनी तारीफ की, कि मुझे लगा कि जो कुछ मैं खोज रहा था, वही मुझे मिल गया। त्रिपाठी जी ने यह भी बताया कि किसी कार्यक्रम में प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी जी ने लखनऊ के बहुत से कवियों को सुनने के बाद जब उनको सुना तो वे बोले कि इनको अब तक कहाँ छिपा रखा था! खैर इंसान हूँ यार, धोखा तो हो जाता है न! कवि सम्मेलन में त्रिपाठी जी को सुनने के बाद मालूम हुआ कि ये तो वह मैटीरियल है, जिसे माइक के सामने से हटाना पड़ता है।

एक और कवि-व्यंग्यकार हैं, फिल्म के लिए भी उन्होंने लिखा है। जब उन्होंने अपनी रचनाएं हमारे यहाँ पढीं, उसके बाद मेरा बेटा बोला- पापा इनको फिर कभी मत बुलाना। कारण- उन्होंने भारतीय क्रिकेट और अमिताभ बच्चन के विरुद्ध अपने आलेख पढे थे, वैसे भी वे कविताएं नहीं हैं। आप खेल को खेल की तरह न देख पाएं और अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार का उसके किसी गाने के कारण मज़ाक़ उड़ाएं! मेरा स्पष्ट मत है इस तरह के आलेख आप खूब लिख सकते हैं, अगर आपके मन की मूल भावना ईर्ष्या की हो।

मैं यह भी बताना चाहूंगा कि जब के.पी.सक्सेना जी हमारे यहाँ पहुंचे, जी हाँ मैं इनकी ही बात कर रहा था, तब मैं अपनी परंपरा के अनुसार उनका स्वागत करने के लिए पहुंचा। मेरे पहुंचते ही वो बोलने लगे ‘गीज़र काम नहीं कर रहा है, चाय अच्छी नहीं मिली।’  मैंने  बताया कि मैं तो आपके स्वागत के लिए आया था, मैं अभी इन समस्याओं को देख लेता हूँ।

श्री सक्सेना जी अपने आलेखों में अंग्रेजी के उपयोग का मज़ाक उड़ाते थे, परंतु जब उन्होंने यह पता कर लिया कि मेरे बॉस कौन हैं, श्री दुबे जी थे उस समय, उन्होंने जाने के बाद भ्रष्ट अंग्रेजी में दुबे जी को एक पत्र लिखकर कहा कि भविष्य में आपको कवि सम्मेलन कराना हो, तब मुझे (सक्सेना जी को) बताना, मैं बढ़िया टीम दिला दूंगा।

एक और कवि का ज़िक्र करना चाहूंगा- श्री सांड बनारसी। एक बार ये फैसला किया गया कि कवियों की एक टीम बुलाकार, एनटीपीसी की आसपास स्थित तीनों परियोजनाओं में कवि सम्मेलन कराया जाए। इस कार्यक्रम के संचालन के लिए मैं वाराणसी में श्रेष्ठ कवि श्रीयुत श्रीकृष्ण तिवारी जी से मिला। तिवारी जी ने मुझे बताया कि सांड बनारसी जी को इस आयोजन का पता चल गया है और वे उनसे अनुरोध कर रहे हैं कि उनको भी ले चलें। वैसे सांड बनारसी जी मेरी प्राथमिकता में बिल्कुल नहीं थे लेकिन उनके कहने पर मैंने इनको टीम में शामिल कर लिया। लेकिन सांड बनारसी जी को यह मालूम हो गया था कि मैं उनको नहीं बुलाना चाह रहा था। यह भी सही है कि प्रशंसक तो उनके भी बहुत हैं, शायद श्रीकृष्ण तिवारी जी से ज्यादा हैं। ये तो मेरा पागलपन है कि मैं इनको नहीं बुलाना चाहता। तो बाद में सांड बनारसी जी ने बगल की परियोजना में अपने प्रशंसक अधिकारी को धन्यवाद देते हुए पत्र लिखा और कहा कि हमारे यहाँ उनको काफी तकलीफ हुई थी।

उस समय हमारे विभागाध्यक्ष थे, सकारात्मक सोच वाले नंद बाबा, उनको तो मानो ब्रह्मास्त्र मिल गया उस पत्र से।

इससे पहले कि विंध्यनगर छोड़ने की घोषणा करूं, कोशिश करता हूँ कुछ मीठी यादों को वहाँ की, ताज़ा करने की। हालांकि मेरे प्रिय गायक मुकेश जी का गीत है-

भूली हुई यादों, मुझे इतना ना सताओ,

अब चैन से रहने दो, मेरे पास न आओ।

बेशक अगले ब्लॉग में नितिन मुकेश जी के प्रोग्राम का विवरण  दूंगा।

कुछ बातें याद आती हैं, आकाशवाणी रीवा से समय-समय पर कविताओं का प्रसारण, नियमित रूप से होता था। वहाँ से ‘ए’ ग्रेड के कवि हेतु अपग्रेड करने का प्रस्ताव भी बढ़ाया गया, लेकिन बाद में कुछ अलग प्रकार का स्टॉफ वहाँ आ गया और अचानक यह आना-जाना बंद हो गया।

कार्यक्रमों का संचालन तो नियमित रूप से करता ही था। एक बार ऐसा हुआ कि 500 से अधिक कर्मचारियों को दीर्घ-सेवा पुरस्कार दिए जाने थे। शुरू में लग रहा था कि कैसे निपटेगा यह कार्यक्रम। शुरू में कर्मचारी काफी कम संख्या में पहुंचे थे। इस पर मैंने टिप्पणी की थी कि पुरस्कार पाने वाले साथियों की संख्या लगभग उतनी है जितनी हमारे एक सदन के माननीय सांसदों की है और उपस्थिति भी लगभग वैसी ही है, जैसी वहाँ होती है।

प्रशंसा और प्यार लोगों से बहुत मिला, लेकिन कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला, कोई अफसोस नहीं, बस ऐसे ही ज़िक्र कर दिया। बड़ों की प्रशंसा में डिप्लोमैसी भी होती है बहुत बार। एक बार जब मैं मंच से उतरा तो एक कर्मचारी  साथी अपने 3-4 साल के बच्चे को साथ लेकर आए, बोले कि कह रहा था, उन अंकल से मिलवा दो। मेरे लिए यह सबसे बड़ा पुरस्कार था।

एक बात का खयाल आ रहा है कि अनेक कवियों की रचनाओं का मैंने यहाँ उल्लेख ‌किया लेकिन गीतों के राजकुंवर नीरज जी को छोड़ दिया। लीजिए नीरज जी की कुछ रचनाएं और उनकी विख्यात रचना ‘कारवां के कुछ अंश –

 

जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला,
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला ।

तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला,
प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर निकला ।

डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर,
एक आँसू का वो कतरा तो समुंदर निकला ।

मेरे होठों पे दुआ उसकी जुबाँ पे ग़ाली,
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला ।

ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा,
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला ।

वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन,
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला ।

रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई,
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला ।

क्या अजब है इंसान का दिल भी ‘नीरज’
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला ।

******************

आँसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा
जहाँ प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा।

मान-पत्र मैं नहीं लिख सका
राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक रहा जनम से
सुंदरता के दीवानों का
लेकिन था मालूम नहीं ये
केवल इस गलती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा।

खिलने को तैयार नहीं थीं
तुलसी भी जिनके आँगन में
मैंने भर-भर दिए सितारें
उनके मटमैले दामन में
पीड़ा के संग रास रचाया
आँख भरी तो झूमके गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से क्या इस तरह जिया जाएगा

काजल और कटाक्षों पर तो
रीझ रही थी दुनिया सारी
मैंने किंतु बरसने वाली
आँखों की आरती उतारी
रंग उड़ गए सब सतरंगी
तार-तार हर साँस हो गई
फटा हुआ यह कुर्ता अब तो ज्यादा नहीं सिया जाएगा

जब भी कोई सपना टूटा
मेरी आँख वहाँ बरसी है
तड़पा हूँ मैं जब भी कोई
मछली पानी को तरसी है,
गीत दर्द का पहला बेटा
दुख है उसका खेल खिलौना
कविता तब मीरा होगी जब हँसकर जहर पिया जाएगा।

और अंत में ‘कारवां’ की कुछ पंक्तियां-

 

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से

लुट गए सिंगार सभी, बाग के बबूल से,

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,

कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

 नींद भी खुली न थी, कि हाय धूप ढल गई,

पांव जब तलक उठे, कि ज़िंदगी फिसल गई,

पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

 

आज के लिए इतना ही, नमस्कार।

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30. कभी फुर्सत में कर लेना हिसाब, आहिस्ता-आहिस्ता।

एनटीपीसी की सभी परियोजनाओं की तरह, विंध्याचल परियोजना में भी स्थापना दिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 7 नवंबर को बड़ा आयोजन किया जाता है। जैसा मैंने बताया इन आयोजनों में अभिजीत, अनूप जलोटा तथा जगजीत सिंह जैसे बड़े कलाकार आ चुके थे। जगजीत सिंह के कार्यक्रम के समय तो अलग ही माहौल था। विशाल स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में यह आयोजन किया गया था, श्रमिक यूनियन हड़ताल पर थीं। इस प्रकार स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स के भीतर सीमित संख्या में श्रोता बैठे थे और बाहर सड़क पर बड़ी संख्या में कर्मचारी बंधु बैठकर उस कार्यक्रम का आनंद ले रहे थे।

उसके अगले दिन पड़ौसी परियोजना की शक्तिनगर टाउनशिप में यह कार्यक्रम रखा गया था, वहाँ भीड़ ज्यादा थी, कुछ गज़लें जगजीत सिंह जी ने सुनाईं, उसके बाद एक पंजाबी गीत सुनाया और उसके बाद लगातार पंजाबी गीत की डिमांड आने लगी। अंत में जगजीत जी को कहना पड़ा कि अगली बार आप गुरदास मान जी को बुलाइएगा।

एक बात जो मेरे उस समय के सहयोगी श्री अरुण कुमार मिश्रा जी ने, आज ही याद दिलाई, एक बार स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में कवि सम्मेलन चल रहा था, आधी रात के समय बारिश आ गई, तुरंत कार्यक्रम को रूसी प्रेक्षागृह में शिफ्ट किया गया। परियोजना में विभिन्न विभागों की हमारी टीम शानदार थी और सभी इन कार्यक्रमों में रुचि लेते थे। इस प्रकार कार्यक्रम में साहित्य के आस्वादन के अलावा रोमांच की भी हिस्सेदारी हो गई।

एकाध बार हमने देखा कि खुले में चल रहे कार्यक्रम के दौरान कोई सज्जन उठकर जाने लगे तो बगल वाले को बताया कि कंबल लेने जा रहे हैं।

रूसी प्रेक्षागृह के संबंध में बता दूं कि विंध्याचल परियोजना रूसी सहयोग से स्थापित की गई थी और उस समय तक वहाँ रूसी विशेषज्ञ ‘रशियन कॉम्प्लेक्स’ में रहते थे, उसमें ही यह हॉल भी था, जिसे ‘रशियन ऑडिटोरियम’ या रूसी प्रेक्षागृह कहते थे।

एक बात और जो मिश्रा जी ने याद दिलाई, वैसे शायद मैं बाद में इसका ज़िक्र करता, हिंदी पखवाड़े के दौरान हम हिंदी के किसी साहित्यकार को विशेष व्याख्यायन के लिए आमंत्रित करते थे। इनमें दो प्रमुख नाम, जो अभी याद आ रहे हैं, वे थे- डॉ. विद्या निवास मिश्र जी और प. विष्णुकांत शास्त्री जी। यह सोचकर संतोष होता है कि मुझे इन महान व्यक्तियों को निकट से जानने और इनके चरण स्पर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ।

वैसे हमारी विंध्यनगर टाउनशिप भी एकदम प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है, पं. विष्णुकांत शास्त्री जी का कहना था कि वे इस वातावरण में कुछ दिन रहकर लेखन कार्य करना चाहेंगे। खैर बाद में तो वे राज्यपाल बन गए थे और ऐसा सोचना भी उनके लिए संभव नहीं रहा होगा। जिस समय वे आए थे उस समय वे कोलकाता विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे।

स्थापना दिवस के आयोजनों में कई तरह के प्रयोग किए गए। जैसे पहले मुंबई से किसी फिल्मी कलाकार को बुलाया गया, काफी बड़े बजट के साथ। कई बार ऐसा भी किया गया कि तीन दिन तक अलग-अलग कार्यक्रम किए गए। ऐसा ही एक अनुभव बता रहा हूँ।

कई बार हमने लखनऊ से कुछ ऐसे गायक कलाकारों को बुलाया जो मुंबई की चौखट तक जाकर लौट आए थे। इनमें से ही एक महिला गायिका थीं, नाम याद नहीं आ रहा है, उनका कहना था कि वे मुंबई से जान बचाकर वापस आई थीं,क्योंकि उस समय लता बाई की दादागिरी चलती थी। मैं इस पर अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा। इक़बाल सिद्दीक़ी जी ने भी बहुत संघर्ष किया था। एक गीत इन्होंने गाया हुआ था, वो इनको नहीं दिया गया क्योंकि ये गायक एसोसिएशन के सदस्य नहीं थे, वह गीत श्री महेंद्र कपूर से गवाया गया था। अभी याद नहीं आ रहा कि वह गीत कौन सा था।

खैर एक अवसर पर हमने इन दोनों की टीमों को बुलाकर कार्यक्रम रखा था, जो बहुत सफल रहा था। मेरे मन में यह था कि एक बार इक़बाल सिद्दीक़ी साहब का अकेले का कार्यक्रम रखा जाए। कुछ वर्षों के अंतराल से जब हमने तीन दिन के कार्यक्रम रखे, तब पहले दिन का कार्यक्रम सिद्दीक़ी जी का रखा।

मैं जिस कारण से इसका उल्लेख कर रहा हूँ, वह है कि कई फैक्टर होते हैं, किसी कार्यक्रम के सफल होने के लिए ज़िम्मेदार। गज़ल के या किसी भी कार्यक्रम की सफलता के लिए एक वातावरण निर्मित होना ज़रूरी होता है। अब यह आयोजन था स्थापना दिवस के अवसर पर, रूसी प्रेक्षागृह में, पहली बात जो मैंने नोटिस की कि बहुत से साथी अपने बच्चों को लेकर आए हुए थे, जो वहाँ भागदौड़ कर रहे थे। संभव है साउंड सिस्टम उतना प्रभावी न हो। यह भी संभव है कि उम्र ने सिद्दीक़ी जी की आवाज़ में वह ताक़त न छोड़ी हो।

कारण जो भी, उस दिन वह कार्यक्रम जमा नहीं। नतीज़ा? मैं और मेरे बॉस – श्री एस.के.आचार्य 24 घंटे तक बहुत टेंशन में रहे। अगले दिन भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ के द्वारा नाटक मंचित किया गया- वल्लभपुर की रूपकथा। पूरा नाटक दर्शकों ने डूबकर देखा और इसके पूरा होने पर 5 मिनट तक लगातार तालियां बजती रहीं। उन तालियों की ध्वनि में हमारी टेंशन हवा हो गई। इसके बाद अंतिम आयोजन- कवि सम्मेलन तो आनंद से भरपूर होना ही था।

ये उल्लेख इसलिए किया कि आयोजन करने में केवल आनंद ही नहीं आता, बहुत क्रिएटिव टेंशन भी झेलनी पड़ती है। इसके अलावा ऐसा भी हुआ कि सभी ओर से जब सफल आयोजन के लिए मुझे बधाई मिली तो हमारे साथी, जो आयोजन के लिए फिज़िकल अरेंजमेंट करते थे, वे बोले कि पूरी मेहनत हम करते हैं और क्रेडिट एक इंसान को मिल जाता है। इस पर एक बार बॉस ने कहा- ‘सब बहुत खुश थे, बैठने की व्यवस्था बहुत अच्छी थी, खाने-पीने का प्रबंध भी बहुत अच्छा किया गया था। मानो लोग घर से, कार्यक्रम में इसलिए आते हैं, कि घर पर बैठने की व्यवस्था अच्छी नहीं होती, खाने को अच्छा नहीं मिलता!

बहुत डर लगता है मुझको कि कहीं ज्यादा बोर न कर दूं। अब किस्सा यहीं खत्म करता हूँ।

अब अपनी एक कविता शेयर कर लेता हूँ, कभी-कभी ये काम भी करना चाहिए न?

                                                              जड़ता के बावज़ूद

चौराहे पर झगड़ रहे थे

कुछ बदनाम चेहरे,

आंखों में पुते वैमनस्य के बावज़ूद

भयानक नहीं थे वे।

भीड़ जुड़ी

और करने लगी प्रतीक्षा-

किसी मनोरंजक घटना की।

कुछ नहीं हुआ,

मुंह लटकाए भीड़

धाराओं में बंटी और लुप्त हो गई।

अगले चौराहे पर,

अब भी जुटी है भीड़

जारी है भाषण-

एक फटे कुर्ते-पाजामे का,

हर वाक्य

किसी जानी-पहचानी-

नेता या अभिनेता मुद्रा में,

भीड़ संतुष्ट है यह जान

कि एक और व्यक्ति हो गया है पागल,

जिसके मनोरंजक प्रलाप

बहुतों को नहीं खोने देंगे

मानसिक संतुलन-

 जड़ता के बावज़ूद।

                                            (श्रीकृष्ण शर्मा)

अंत में जगजीत सिंह जी को याद करते हुए, समाप्त करूंगा –

शब-ए-फुरक़त का जागा हूँ, फरिश्तों अब तो सोने दो

कभी फुर्सत में कर लेना हिसाब, आहिस्ता-आहिस्ता।

फिर मिलेंगे, नमस्कार।

============  

29. मत लाओ नैनों में नीर कौन समझेगा, एक बूंद पानी में एक वचन डूब गया।

अब विंध्याचल परियोजना के क्लबों का ज़िक्र कर लेते हैं। दो क्लब थे वहाँ पर, वीवा क्लब (विंध्याचल कर्मचारी कल्याण क्लब) और विंध्य क्लब। वहाँ समय-समय पर होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों के अलावा, हिंदी अनुभाग की ओर से कभी-कभी कवि गोष्ठियों का आयोजन भी हम वहाँ करते थे। अधिक प्रतिभागिता वाले कार्यक्रम तो रूसी प्रेक्षागृह में किए जाते थे।

मुझे याद है कि एक बार कविताओं पर आधारित अंत्याक्षरी प्रतियोगिता वीवा क्लब में हमने की थी, जिसमें अनेक टीमों ने भाग लिया था, काफी दिन तक यह प्रतियोगिता चली थी और प्रतिभागियों ने आगे बढ़ने के लिए बहुत से काव्य संकलन भी खरीदे थे।

खैर अभी जो मुझे क्लबों की याद आई उसका एक कारण है। हमारे बच्चे लोग क्लबों में खेलने के लिए जाते थे, एक रोज़ शाम को मेरा बड़ा बेटा क्लब से घबराया हुआ घर आया, आते ही उसने अपनी मां से पूछा- ‘मां, पापाजी कहाँ हैं’ और उसको यह जानकर तसल्ली हुई कि मैं घर पर ही था और ठीक-ठाक था।

असल में उसने क्लब में सुना था कि किसी- एस.के.शर्मा ने आत्महत्या कर ली है। यह एक बड़ी दुखद घटना थी, जो वहाँ देखने को मिली। इस घटना की पृष्ठभूमि के संबंध में, बाद में ‘मनोहर कहानियां’ मे “डर्टी कल्चर” नाम से लंबी स्टोरी छपी थी। खैर उसके संबंध में चर्चा करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।

ये बड़ी  अजीब बात है कि जो वांछनीय नहीं है, वही इन पत्रिकाओं के लिए – ‘मनोहर कहानी’ होता है, ‘मधुर कथा’ या ‘सरस कथा’ होता है। ये पत्रिकाएं अपराधों के संबंध में रस ले-लेकर कहानी सुनाती हैं और मेरा पूरा विश्वास है कि इससे अपराध को बढ़ावा मिलता है। आजकल टीवी पर भी इस प्रकार के कार्यक्रम आते हैं। इनको बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।

अब कवियों और कवि सम्मेलनों के संबंध में बात कर लेते हैं। विंध्याचल परियोजना में जाने के बाद, शुरु के ही एक आयोजन में ऐसा हुआ था कि हमने नीरज जी को भी आमंत्रित किया था और सुरेंद्र शर्मा को भी बुला रहे थे। उस समय हमारे विभागध्यक्ष थे श्री आर.एन. रामजी। सुरेंद्र शर्मा ने जो राशि मांगी थी वह नीरज जी से तीन गुना थी, यह अनुपात तो शायद आज भी कायम होगा, शायद और बढ़ गया हो, लेकिन श्री रामजी ने कहा, इस कवि को कभी मत बुलाना, मैं इस बात पर हमेशा कायम रहा। अगर हमें भारी रकम देकर चुटकुले ही सुनने हैं, तो कपिल शर्मा जैसे किसी व्यक्ति को बुलाएंगे, कविता के नाम से चुटकुले क्यों सुनेंगे।

एक और आयोजन में हमारे यहाँ श्री सूंड फैज़ाबादी आए थे, वे बोले कि शुरू में लोग हमको मंच पर नहीं चढ़ने देते थे, कहते थे हास्य वाला है। फिर वो बोले कि अब हम फैसला करते हैं कि मंच पर कौन चढ़ेगा। मैंने खैर खयाल रखा कि हमारे आयोजनों में ऐसा न हो पाए। हमने हास्य के ओम प्रकाश आदित्य, प्रदीप चौबे, जैमिनी हरियाणवी, माणिक वर्मा जैसे ख्याति प्राप्त कवियों को बुलाया, लेकिन मंच पर विशेष दर्जा हमेशा साहित्यिक कवियों को दिया।

हमारे आयोजन में श्री शैल चतुर्वेदी एक बार ही आए थे, मुझे याद है उस समय रीवा जिले के युवा एसएसपी- श्री राजेंद्र कुमार भी आए थे और वे शैल जी के साथ काफी फोटो खिंचवाकर गए थे। शैल जी से आयोजन के बाद बहुत देर तक बात होती रही। वे मेरे संचालन से बहुत खुश थे, बोले आप इतना धाराप्रवाह बोलते हो बहुत अच्छा लगा। उन्होंने बताया कि शंकर दयाल शर्मा जी (उस समय के राष्ट्रपति) हर साल राष्ट्रपति भवन में कवि गोष्ठी करते हैं,जिसमें वह जाते थे और उनका कहना था कि अगले साल वो राष्ट्रपति भवन में मुझे बुलाएंगे और मुझे आना होगा। खैर उसके बाद शैल जी ज्यादा समय जीवित भी नहीं रहे थे।

कुछ कवि सम्मेलन तो ऐसे यादगार रहे कि आनंद के उन पलों को आज भी याद करके बहुत अच्छा लगता है। श्री सोम ठाकुर जी का श्रेष्ठ संचालन और उसमें अन्य अनेक ख्यातिप्राप्त कवियों के साथ-साथ श्री किशन सरोज का गीत पाठ –

छोटी से बड़ी हुई तरुओं की छायाएं,

धुंधलाई सूरज के माथे की रेखाएं,

मत बांधो आंचल में फूल चलो लौट चलें,

वह देखो, कोहरे में चंदन वन डूब गया।

 

माना सहमी गलियों में न रहा जाएगा,

सांसों का भारीपन भी न सहा जाएगा,

किंतु विवशता है जब अपनों की बात चली,

कांपेंगे अधर और कुछ न कहा जाएगा।

 

सोने से दिन, चांदी जैसी हर रात गई,

काहे का रोना जो बीती सो बात गई,

मत लाओ नैनों में नीर कौन समझेगा,

एक बूंद पानी में एक वचन डूब गया।

 

दाह छुपाने को अब हर पल गाना होगा,

हंसने वालों में रहकर मुसकाना होगा,

घूंघट की ओट किसे होगा संदेह कभी,

रतनारे नयनों में एक सपन डूब गया। 

मन हो रहा था कि पूरा ही गीत यहाँ उतार दूं, लेकिन स्थान की दिक्कत है, यह एक ऐसा गीत है जैसे कोई डॉक्युमेंट्री फिल्म चल रही हो, ऐसी फिल्म जिसमें मन के भीतर की छवियां बड़ी कुशलता के साथ उकेरी गई हैं। कुछ पंक्तियां किशन सरोज जी के एक और प्रसिद्ध गीत की, इस प्रकार हैं-

धर गए मेहंदी रचे, दो हाथ जल में दीप

जन्म-जन्मों ताल सा हिलता रहा मन।

तुम गए क्या जग हुआ अंधा कुआं

रेल छूटी रह गया केवल धुआं,

हम भटकते ही फिरे बेहाल,

हाथ के रूमाल सा, हिलता रहा मन।

 

बांचते हम रह गए अंतर्कथा,

स्वर्णकेशा गीत वधुओं की व्यथा,

ले गया चुनकर कंवल, कोई हठी युवराज,

देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन।

आज के लिए इतना ही।    

नमस्कार।

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28. मन कस्तूरी हिरण हो गया, रेत पड़ी मछली निंदिया!

चलिए आगे बढ़ने से पहले नंद बाबा का थोड़ा सम्मान कर लेते हैं। नंद बाबा, मां-बाप ने इनका नाम रखा था –सच्चिदानंद, इन्होंने बाद में अपनाया एस. नंद और जनता ने प्यार से इनको कहा- नंद बाबा।

कारण जो भी रहे हों, विंध्याचल परियोजना में कार्यग्रहण करते ही इनकी महाप्रबंधक महोदय से बिगड़ गई। वैसे एक बहुत बड़ा गुनाह जो इनकी निगाह में, इनके आने से पहले हो चुका था, वह था मेरी पदोन्नति होना, क्योंकि उसमें मेरे शुद्ध एच.आर. के एक साथी की पदोन्नति नहीं हो पाई थी। मुझे किसी का बुरा होने पर खुशी हो, ऐसा मैं कोशिश करता हूँ कि कभी न हो, लेकिन यह एक प्रशासनिक निर्णय था, जैसा हुआ मानना चाहिए। मेरी गाड़ी बाद में लगातार रुकती रही, उस पर तो नंद बाबा को कभी अफसोस नहीं हुआ होगा।

वैसे नंद बाबा की सोच में जातिगत फैक्टर भी था, ऐसा मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ। अब नंद बाबा की शत्रुता थी महाप्रबंधक से, और वो यह लड़ाई लड़ना चाहते थे मेरे माध्यम से!

परियोजना में और इसके आसपास बहुत से अच्छे कवि और कलाकार थे। परियोजना स्तर पर जो आयोजन होते थे, उनके मुख्य अतिथि तो महाप्रबंधक होते थे। नंद बाबा हर माह स्थानीय कलाकारों का एक आयोजन कराते, जिसके मुख्य अतिथि वे खुद होते थे। महाप्रबंधक को इसके बारे में बताया भी नहीं जाता था। इसके लिए प्रस्ताव मुझे बनाना होता था और डीजीएम के रूप अपनी आर्थिक शक्तियों के अंतर्गत नंद बाबा इस पर होने वाले खर्च का अनुमोदन करते थे।

इस आयोजन में नंद बाबा अपने प्रिय शिष्यों को सुनते थे। ज्यादातर गाना-बजाना होता था, कविता कभी-कभी होती थी। अब अगर किसी ने कह दिया कि शर्मा जी बहुत अच्छा गाते हैं, तो बाबाजी कहते, वो बाद में गाएंगे, सबके जाने के बाद। कोई इंसान भीतर से इतना छोटा हो और वह सकारात्मक सोच का दावा करे, भगवान ही मालिक है।

इन आयोजनों का प्रस्ताव क्योंकि मुझे बनाना होता था इसलिए अगर महाप्रबंधक का कोप किसी को झेलना पड़ता तो वो मैं ही होता। लेकिन शुक्र है, हमारे महाप्रबंधक इतने छोटे दिल के नहीं थे। उन्हें लॉयंस क्लब के तथा अन्य आयोजनों में भरपूर महत्व मिल जाता था। सो उनको इन आयोजनों से कोई फर्क नहीं पड़ता था।

अब फिलहाल राजनीति की बात काफी हो गई। सांस्कृतिक आयोजनों और कवि सम्मेलनों से तो परियोजना के जीवन में नया उत्साह आता था, मुझे याद है इस सिलसिले में मैंने काफी यात्राएं भी कीं। अलीगढ़ में नीरज जी के घर जाकर उनसे मुलाक़ात, मुम्बई में शरद जोशी जी से मिलना, हालांकि वे हमारे यहाँ आ नहीं पाए थे। नितिन मुकेश जी के बारे में तो अलग से एक ब्लॉग लिखने का प्रयास करूंगा। उदयपुर भी जाने का अवसर मिला था, वहाँ से पंडवानी नृत्य और कठपुतली के कार्यक्रम कराने के लिए। उस ज़माने में दरअसल मोबाइल का इतना प्रचलन नहीं हुआ था।

फिलहाल मैं उस क्षेत्र के एक धुनी व्यक्ति का ज़िक्र करना चाहूंगा। ये सज्जन सिंगरौली और विंध्याचल परियोजनाओं में फोटोग्राफी का काम करते थे, शक्तिनगर में फोटो स्टूडियो भी था इनके बड़े भाई का- नन्हे स्टूडियो। इन्हें हम दाढ़ी वाले पांडे जी के नाम से जानते थे। शायद सत्यनारायण पांडे नाम था, अगर मुझे सही याद है तो। एक बार पांडे जी तब सुर्खियों में आए थे, जब राजीव गांधी शक्तिनगर आए थे। जो नहीं जानते हैं उन्हें बता दूं कि वहाँ अगल-बगल दो परियोजनाएं, यानि बिजलीघर हैं और एक की टाउनशिप का नाम शक्तिनगर है। किसी भी परियोजना में आने के लिए वीआईपी शक्तिनगर के हैलीपैड पर आते हैं।

हुआ ऐसे कि राजीव गांधी के आगमन के समय पांडे जी किसी सुरक्षा-पास वाली गाड़ी में बैठकर हैलीपैड पर पहुंच गए। बाद में बनारस के समाचारपत्रों में छपा- ‘एक अदने से फोटोग्राफर ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध लगाई’।

खैर मैं पांडे जी का ज़िक्र किसी और संदर्भ में कर रहा था। पांडे जी का जन्मदिन शरद पूर्णिमा को पड़ता है। मुझ जैसे लोगों की रुचि जबकि कविता और सुगम/ फिल्मी संगीत में थी, वहीं पांडे जी शास्त्रीय संगीत में गहरी रुचि लेते थे और उन्होंने शास्त्रीय संगीत के अनेक श्रेष्ठ कार्यक्रम आयोजित किए, जिनमें- पं. जसराज का गायन,  बिस्मिल्लाह खां साहब की शहनाई, पं. शिव कुमार शर्मा, हरि प्रसाद चौरसिया आदि अनेक लोगों के कार्यक्रम आयोजित किए, इन कार्यक्रमों के संचालन का अवसर भी मुझे प्राप्त होता था।

जहाँ तक कंपनी की ओर से किए जाने वाले आयोजनों का प्रश्न है, उनमें जगजीत सिंह, अभिजीत, महेंद्र कपूर आदि अनेक कलाकार आए। नितिन मुकेश जी का आयोजन तो यादगार है, उसके बारे में अलग से बात करूंगा।

यहाँ मैं गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस के कार्यक्रमों में मेरी भागीदारी के बारे में एक वाकया बताना चाहूंगा। शायद स्वाधीनता दिवस के एक आयोजन के समय की बात है, भोपाल में मेरी बड़ी बहन रहती थीं, जिनकी इस आयोजन से पहले मृत्यु हो गई। उस समय हमारे विभागीय प्रधान थे श्री नागकुमार और महाप्रबंधकथे श्री जी.एस.सरकार। मैंने अपनी बहन के अंतिम संस्कार में जाने के लिए छुट्टी मांगी, इस पर श्री नागकुमार ने कहा-  ‘मि. शर्मा ऑय एम सॉरी बट मैं आपको छुट्टी नहीं दे सकता।’ ऐसा भी होता है, रिश्तेदारी में मुझे कुछ बहाना बनाना पड़ा।

किस्से तो बहुत हैं, आगे और बात करेंगे, फिलहाल सुकवि श्री सोम ठाकुर जी की एक श्रेष्ठ रचना का कुछ भाग  शेयर करना चाहूंगा-

क्या बतलाएं हमने कैसे शाम-सवेरे देखे हैं,

सूरज के आसन पर बैठे,घोर अंधेरे देखे हैं।

कोई दीवाना जब होठों तक अमृत घट ले आया,

काल-बली बोला मैंने, तुझसे बहुतेरे देखे हैं।

मन कस्तूरी हिरण हो गया, रेत पड़ी मछली निंदिया

जब से होरी ने धनिया के नयन बड़ेरे देखे हैं।

                                                                    (सोम ठाकुर)

नमस्कार।

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