इब्तदा कुछ इस तरह

 

किसी ने फिर न सुना, दर्द के फसाने को

मेरे न होने से राहत हुई ज़माने को। 

खैर दर्द का फसाना सुनाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। ज़िंदगी के साथ, इस राह में मिले कुछ विशेष पात्रों, विशेष परिस्थितियों के साथ हुए ऐसे अंतर्संवाद, जिनमें मुझे ऐसा लगता है कि अन्य लोगों की रुचि हो सकती है, उनको ही यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा।

अब तक जो कुछ कहा, उसको ऐसा समझ लीजिए कि जैसे मदारी गली में आकर, डुगडुगी या बांसुरी बजाकर लोगों को आकर्षित करने का प्रयास करता है, वैसा ही है। आजकल जिसे ‘कर्टेन रेज़र’ भी कहा जाता है, हालांकि वे मेरी इस कथा का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और मैं चाहूँगा कि मेरे मित्र उनको भी अवश्य पढ़ लें। वे ऐसे प्रसंग थे, जो लाइन तोड़कर पहले ही उपस्थित हो गए। अब जिन प्रसंगों को शेयर करने जा रहा हूँ, उनमें बड़ी दुविधा है कि क्या कहूं और क्या न कहूं।  

कोई कथा या धार्मिक आयोजन होता है तो प्रारंभ में देवता स्थापित किए जाते हैं। एक होते हैं, स्थान देवता- यह बताने का मेरा कर्तव्य है कि मैं कहाँ स्थापित या विस्थापित था उस समय, जब ये घटनाएं हुईं।

संक्षेप में बता दूं कि मेरा जन्म दरियागंज में हुआ था, वर्ष 1950 में, दरियागंज थाने के सामने, कोई कटरा है, वहाँ। मैं शायद 5 वर्ष का था जब यहाँ से हम शाहदरा चले गए थे। दरियागंज की कोई याद बताने लायक नहीं है।

एक याद है कि नेहरू जी सामने से निकले, खुली जीप में हाथ हिलाते हुए, नहीं मालूम कि अवसर कौन सा था। एक छवि मन में है कि पुतला साइकिल चला रहा था, जो बिजली की सजावट में, बाद में बहुत समय बाद देखा, पहली बार बचपन में जो देखा शायद वह प्रदर्शनी मैदान में रहा होगा।

शाहदरा में जहाँ हम जाकर बसे, वह स्थान है भोलानाथ नगर, सनातन धर्म पाठशाला और गौशाला के पीछे, एक मुख्यमार्ग जो राधू सिनेमा से बाबूराम आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तक जाता है, उसी की बगल में था हमारा घर, संते की डेयरी के पीछे। उस डेयरी में उस समय 15-20 भैंसे और कुछ गाय भी थीं। इस समय उसके स्थान पर मदर डेयरी है, जिसमें लोहे की एक भैंस है, जो शायद उन सभी भैंसों से ज्यादा दूध देती है।

पिताश्री सेल्स रिप्रेज़ेंटेटिव का काम करते थे, जब तक दरियागंज में थे, तब तक अच्छा काम चल रहा था, शाहदरा जाने के बाद, जिस कंपनी में वो काम करते थे वह छोड़ दी और उसके बाद, जब तक मैंने उन्हें देखा, वे नौकरियां बदलते रहे। अक्सर वो बाहर रहते थे। जब जाते थे तब किसी और फर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे होते थे और लौटते थे किसी और फर्म के प्रतिनिधि के रूप में। एक लाल रंग का अंगोछा हमेशा उनके पास रहता था। जब वो लौटकर आते थे, उनके अंगोछे में से दो चीज़ों की मिली-जुली गंध आती थी, एक तो कलाकंद जो वो हमेशा लेकर आते थे और एक भांग, जो वो हमेशा खाते थे।

जिन फर्मों के लिए वो काम करते थे उनके ऑफिस सामान्यतः चांदनी चौक, दिल्ली में या उसके आस-पास होते थे। मुझे याद है कि एक बार उनके साथ चांदनी-चौक गया, मिठाई की दुकान पर वे मुझे क्या-क्या खिलाने की कोशिश करते रहे। धंधे की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। उस समय शाहदरा से पुरानी दिल्ली का रेल या बस का किराया बहुत अधिक नहीं रहा होगा, लेकिन एक-दो बार मैंने यह भी देखा कि भांग की एक गोली निगलकर वो पैदल ही दिल्ली के लिए निकल लिए। मैंने काफी समय बाद कोशिश की पैदल शाहदरा से चांदनी चौक आने की, 6 किलोमीटर से ज्यादा ही पड़ता है, आसान नहीं है।

मैं आंतरिक रूप से जैसा बना, उसमें शायद सबसे अधिक मेरे पिता के संघर्ष का ही हाथ है, आगे भी उसके बारे में बात करूंगा, फिलहाल कुछ और बात कर लेते हैं।

कक्षा 1 से 5 तक की पढ़ाई मैंने सनातन धर्म पाठशाला में की, जिसे गौशाला वाला स्कूल कहते थे, क्योंकि स्कूल के बगल में ही गौशाला थी और अहाते में ही एक मंदिर भी था। उसके बाद कक्षा 6 से 12 तक की पढ़ाई बाबूराम स्कूल में की, जिसके पूरे नाम में उस समय ‘आदर्श’ भी शामिल था और जब तक मैंने वहाँ पढ़ाई की शामिल रहा। बाद में मालूम हुआ कि किसी नकल-वीर ने, नकल से रोकने पर, एक शिक्षक की हत्या कर दी और स्कूल ‘आदर्श’ का अतिरिक्त बोझ ढ़ोने के लायक नहीं रह गया। बहुत अच्छे अंग्रेजी शिक्षक थे वो, हरीश चंद्र गोस्वामी, आज भी उनकी छवि याद है।

बाबूराम स्कूल, कक्षा 6 से 12 की पढ़ाई की अवधि, इसमें तो ऐसी कुछ बातें अवश्य होंगी जो सुधीजनों के साथ शेयर की जा सकें। ये बातें अगले ब्लॉग में करेंगे। 

बीमार बाग जैसी, है ये हमारी दुनिया,

इस प्राणवान तरु की, मृतप्राय हम टहनियां,

एक कांपती उदासी, हर शाख पर लदी है।

                                                    ये बीसवीं सदी है।                                      (डा. कुंवर बेचैन)

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2 responses to “इब्तदा कुछ इस तरह”

  1. Nice mama je i keep listening this through mummy but today it was a nice story of my ma life really appriciable.

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  2. Nice story of my mom childhood

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