लीजिए एक बार फिर से जनाब क़तील शिफ़ाई साहब की एक ग़ज़ल का आनंद लेते हैं| जैसा कि आप जानते ही हैं क़तील साहब भारतीय उपमहाद्वीप के एक महान शायर थे और अनेक प्रसिद्ध गायकों ने उनकी ग़ज़लों आदि को अपना स्वर दिया है|

यह भी क़तील साहब की अलग किस्म की ग़ज़ल है, हमारे इरादे कुछ और होते हैं, लेकिन होता वही है जो होना होता है, लीजिए इस ग़ज़ल का आनंद लीजिए-
हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे,
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे|
जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात,
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे|
मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की,
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे|
उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में,
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे|
कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू,
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे|
कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को,
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे|
रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए “क़तील”,
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे|
आज के लिए इतना ही,
नमस्कार|
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