-
105. जय पद्मावती!
अब नया मुद्दा रानी पद्मावती का मिल गया है, जिस पर देश भर के घटिया लोग एकजुट हो जाएंगे, हो गए हैं। मैंने पहले भी लिखा है कि अगर आज मुंशी प्रेमचंद जिंदा होते तो न जाने कितने मुक़द्मे झेल रहे होते। सबसे बड़ी बात यह है कि आज आप कोई बदतमीज़ी करो, किसी सार्वजनिक…
-
104. शत्रु भैया के बहाने!
शत्रु भैया, याने शत्रुघ्न सिन्हा जी के बहाने बात कर लेते हैं आज। बहुत अच्छे अभिनेता रहे हैं, किसी समय इनकी मार्केट अमिताभ जी से ज्यादा थी, लेकिन जैसा वे कहते हैं कुछ गलत निर्णय और सब कुछ हाथ से निकल गया। मैं, पटना के कदम कुआं में, शत्रु भैया के पड़ौस में तो होकर…
-
103. किसी का प्यार क्या तू, बेरुखी को तरसे!
आज धर्मेंद्र जी के बारे में बात करने का मन हो रहा है। वैसे कोई किसी का नाम ‘धर्मेंद्र’ बताए तो दूसरा पूछता इसके आगे क्या है, शर्मा, गुप्ता, वर्मा, क्या? मगर अभिनेता धर्मेंद्र के लिए इतना नाम ही पर्याप्त है। वैसे उनके बेटों के नाम के साथ जुड़ता है- देओल, लेकिन धर्मेंद्र अपने आप…
-
102. फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या !
एक गज़ल है उबेदुल्लाह अलीम जी की, गुलाम अली जी ने डूबकर गाई है जो बहुत बार सुनी है, बहुत अच्छी लगती है। कुल मिलाकर धार्मिक अंदाज़ में, इसको भी जीवन की नश्वरता से जोड़ा जा सकता है, लेकिन यह कि इस ज़िंदगी को, जो वैसे भी अकेलेपन में, नीरस तरीके से गुज़र ही जानी…
-
101. आईना हमें देख के हैरान सा क्यों है!
एक हिंदी फिल्म आई थी गमन, जिसमें ‘शहरयार’ की एक गज़ल का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया गया था। वैसे यह गज़ल, आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी की घुटन, कुंठाओं आदि का बहुत सुंदर चित्रण करती है। इंसान को भीतर ही भीतर मारने वाली ऐसी परेशानियां, शहर जिनका प्रतीक बन गया है! शहर जहाँ हर कोई…
-
100. जीवन और उसका प्रमाण पत्र!
आज जबकि मेरे ब्लॉग लेखन का शतक बन रहा है, नवंबर का महीना चल रहा है, जबकि सेवानिवृत्त लोगों को अपना ज़िंदा होने का प्रमाण जुटाना जरूरी होता है। आप ज़िंदा हैं इतना काफी नहीं होता, किसी ने कहा है न- जो ज़िंदा हो, तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है और नज़र भी किसको…
-
99. जार्जेट के पल्ले सी, दोपहर नवंबर की!
बहुत बार लोग कविता लिखते हैं मौसम पर, कुछ कविताएं बहुत अच्छी भी लिखी जाती हैं। तुलसीदास जी ने, जब रामचंद्र जी, माता सीता की खोज में लगे थे, उस समय ऋतुओं के बदलने का बहुत सुंदर वर्णन किया है। पूरा मनोविज्ञान भरा है उस भाग में, जहाँ वे वर्षा में छोटे नदी-नालों के उफन…
-
98. आंखों में नमी, हंसी लबों पर!
बहुत सी बार ऐसा होता है कि कोई कविता शुरू करते हैं, कुछ लाइन लिखकर रुक जाते हैं। फिर आगे नहीं बढ़ पाते, लेकिन वो लाइनें भी दिमाग से नहीं मिट पातीं। अभी दिवाली आकर गई है, दीपावली, दिवाली कहने से ‘दिवाला’ याद आता है, हालांकि वो भी बड़े रईसों की चीज़ है, सामान्य आदमी…
-
97. विकास प्राधिकरण!
आज लखनऊ का एक सरकारी विभाग याद आ गया, जिससे काफी वर्षों पहले वास्ता पड़ा था, 2002 के आसपास, और इस विभाग की याद ऐसी तेजी से आई कि मैं जो अभी एक अनुवाद के काम में लगा हूँ, उसको बीच में छोड़कर ही इस अनुभव को शेयर कर रहा हूँ, उसके बाद अनुवाद आगे…
-
96. उसके होठों पे कुछ कांपता रह गया!
आज वसीम बरेलवी साहब की एक गज़ल याद आ रही है, बस उसके शेर एक-एक करके शेयर कर लेता हूँ। बड़ी सादगी के साथ बड़ी सुंदर बातें की हैं, वसीम साहब ने इस गज़ल में। पहला शेर तो वैसा ही है, जैसा हम कहते हैं, कोई बहुत सुंदर हो तो उसको देखकर- आपको देख कर…