अपने मोहल्ले में कुछ समय तो और बिताना होगा। आज अपने वकील भाई साहब के बारे में बात कर लेते हैं, जिनके पास हम जाकर बसे थे इस मोहल्ले- भोलानाथनगर, शाहदरा में। वकील साहब मेरे मामा के बेटे होने के नाते मेरे बड़े भाई लगते थे, लेकिन असल में उनके बेटे मेरे हमउम्र, मुझसे एक-दो वर्ष छोटे थे। यहाँ यह भी बता दूं कि मेरे पिताश्री ने अपनी घोर आर्थिक तंगी के दिनों में वकील साहब से कुछ उधार लिया था, यह रकम थी 700 रुपये। इस उधारी का उलाहना मेरे पिता अंत तक झेलते रहे, क्योंकि वो यह रकम नहीं चुका पाए थे। मैंने सुना था कि किसी समय मेरे पिता ने पालम हवाई अड्डे के आसपास कुछ जमीन भी खरीदी थी, लेकिन वो कब और कैसे हाथ से निकल गई, पता ही नहीं चला।
यहाँ अपनी निजी कहानी से अलग एक बात और बता दूं कि शाहदरा या यमुना पार का इलाका अधिकांशतः ऐसा था जहाँ जंगल थे, जमीनों पर लोग कब्ज़ा करते गए और अपनी हिम्मत और बेशर्मी के दम पर धीरे-धीरे खाकपति से करोडपति बनते गए। बस ये करना था कि बीच-बीच में जब चुनाव आएं तब प्रमुख राजनैतिक पार्टियों के झण्डे लगा लें। ऐसे में ईमानदार और कानून का पालन करने वाले लोग वहीं के वहीं रह गए और बेईमान लोग करोड़पति बन गए।
खैर फिर से वकील साहब की बात पर आने से पहले एक प्रसंग बताऊं, मेरे मामाजी, याने वकील साहब के पिता, जो गांव में रहते थे वहाँ आए हुए थे, तभी नील आर्मस्ट्रॉन्ग चांद पर पहुंचे। ये खबर उनको बताने की कोशिश की गई, लेकिन अपनी सहज-बुद्धि से वो इसे मानने को तैयार नहीं हुए। उनका यही कहना था कि वहाँ कोई जाएगा, तो गिर नहीं जाएगा क्या?
वकील साहब राजनीति में भी काफी हद तक सक्रिय थे और कविता भी लिखा करते थे। एक बात और कि पूजा होने पर वे बहुत से भजन भी गाते थे, कुछ भजन मैंने भी उनसे सुनकर याद किए थे।
हम क्योंकि उनके कर्ज़दार थे, इसलिए जब मैं उनके घर जाता था तो भाभी को कोई काम याद आ जाता था, अक्सर भाभी बोलती थीं, किशन भागकर एक किलो चीनी, या चाय या कुछ और लेकर आ जा। वैसे भी हमारा हर रास्ता उनके यहाँ होकर जाता था, परला घर कहते थे हम उनके घर को। हाँ कभी-कभी यह भी होता था, जब हमसे कहा जाता था कि कहीं भी चले जाओ, परले घर मत जाना।
मोहल्ले के एक दो कैरेक्टर रह गए, एक मेरी आयु का मित्र था- विनोद कपूर, हम साथ मिलकर पढ़ाई भी करते थे। उसके पास जासूसी उपन्यासों का खज़ाना रहता था। जैसे एक लेखक थे- इब्ने सफी और उपन्यास होते थे, चीखती लाशें… आदि। हम दोनों में एक और प्रतियोगिता थी, ये निर्णय करना मुश्किल था कि दोनों में से कौन ज्यादा कमज़ोर है। दोनो जिसे बोलते हैं सूखी हड्डी। एक बार ऐसा हुआ कि उसके बगल में रहने वाला एक बंगाली लड़का मुझे काटकर चला गया। उस लड़के पर तो मेरा बस नहीं चला, मैंने विनोद से बोलचाल बंद कर दी। इसके बाद जासूसी उपन्यासों की सप्लाई बंद। जब कभी हम आमने-सामने आते, लगता कि मैं बोल पड़ूंगा या वो बोल देगा, लेकिन कई साल तक हम उसी मोहल्ले में रहे, विनोद पिछली गली में था, लेकिन ये चुप्पी नहीं टूटी।
विनोद के पिता कपूर साहब काफी धार्मिक व्यक्ति थे। अक्सर संते की डेयरी में वो दूध लेने आते थे तब उनको देखता था। वो गुनगुनाते रहते थे- ‘दीनदयाल विरिदु संभारी – संते मेरा नंबर है, हरहु नाथ मम संकट भारी – मुझे दूध कब दोगे भाई — ।’ कभी लगता कि उनका संकट यही है कि उनको दूध जल्दी नहीं मिल रहा!
एक और परिवार था पिछली गली में, वे सुनार का काम करते थे, उसमें एक लड़का आनंद याने अन्नू, जब किसी से झगड़ा होता और उसका अक्सर हो जाता था, तब वह बोलता था- ‘अन्नू लाला रूठेगा, बड़े-बड़ों का सिर फूटेगा।’ खैर एक घटना याद आ रही है। उस समय स्वच्छ भारत जैसा कोई अभियान तो था नहीं। शहर का काफी बड़ा हिस्सा जंगल था और वहीं लोग दिशा-मैदान के लिए जाते थे। और यह भी बता दूं जिधर लोग इस शुभ-कर्म के लिए जाते थे, उधर ही एक टेम्प्रेरी सिनेमा बना हुआ था, टीन-टपारे वाला सिनेमा हाल। एक बार अन्नू लाला ने बड़े भाई की जेब से पैसे निकालकर सिनेमा देखने का मन बनाया। जैसे ही वो घर से बाहर निकला, उसको बड़े भाई लोटा लेकर लौटते हुए मिले। पूछा तो दिशा-मैदान का बहाना बना दिया। इस पर भाई ने हाथ में लोटा पकड़ा दिया। अब अन्नू लाला इस धर्म संकट में कि लोटा लेकर सिनेमा देखने कैसे जाएं।
खैर किस्से तो बहुत से हैं, फिर से आते रहेंगे।
जैसा मैंने बताया कि मेरे पिता, वकील साहब के कर्ज़दार थे, जीवन में एक असफल इंसान थे। ईश्वर में आस्था इतनी गहरी थी कि वो उसी से लड़ते रहते थे। नहाते समय हनुमान चालीसा पूरी गाते थे और यदा-कदा भगवान को गालियां देकर अपनी शिकायत भी दर्ज कराते रहते थे।
उन पर कर्ज़ था 700 रुपये, और जो मुसीबतें थीं जीवन में, कई बार मेरे मन में आता है, कि आज की तारीख में मेरे लिए एक-दो लाख रुपये कोई बड़ी बात नहीं है। मैं सोचता हूँ कि अगर टाइम-मशीन जैसी कोई चीज़ होती तो मैं एक-दो लाख लेकर उस कालखंड में चला जाता और पूरे हालात ही बदल जाते।
मैंने कई बार सोचा कि इस विषय पर उपन्यास लिखा जाए कि पैसा लेकर भूतकाल में जाएं और अतीत को बदलकर रख दें। इसमें दो रास्ते हैं, सोना लेकर जाएं हालांकि उसकी कीमत भूतकाल में उतनी नहीं थी। अगर मुद्रा लेकर जाएं तो आज की तारीख के नोटों को समय-समय पर चल रही मुद्राओं के अनुसार बदलना होगा, जिस गवर्नर के हस्ताक्षर उस समय चलते थे उसके अनुसार। तो बीच में स्टेशनों पर रुकते हुए यात्रा करनी होगी।
खैर यह बड़ी सुंदर कल्पना है, लेकिन प्रक्रिया बहुत जटिल है, कल्पनाओं का क्रियान्वयन भी तो सरल होना चाहिए।
दिल भी ये ज़िद पे अड़ा है, किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए, या कुछ भी नहीं।
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