53. पहाड़ों के क़दों की खाइयां हैं !

आज फिर से, लीजिए प्रस्तुत है एक और पुराना ब्लॉग-
आज दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आ रहा है-

पहाडों के क़दों की खाइयां हैं
बुलंदी पर बहुत नीचाइयां हैं।

यह शेर दुष्यंत जी की एक गज़ल से है, जो आपातकाल के दौरान प्रकाशित हुए उनके संकलन ‘साये में धूप’ में शामिल था और बहुत उसने जनता पर बहुत प्रभाव छोड़ा था।
वैसे तो समुद्र के बारे में कहा जाता है कि उसमें पहाड़ समा सकते हैं, इतनी गहराई होती है उसमें! किसी की धीर-गंभीरता के लिए भी समुद्र जैसी शांति की संज्ञा दी जाती है, भूगर्भ वैज्ञानिक ऐसा भी कहते हैं कि पृथ्वी पर जब उथल-पुथल होती है, तब जहाँ पहाड़ थे वहाँ समुद्र बन जाते हैं और जहाँ समुद्र है वहाँ पर पहाड़ !
फिर लौटते हैं शेर पर, समुद्र की गहराई तो उसकी महानता है, गहनता है, लेकिन खाई तो जितनी कम गहरी हो, उतना अच्छा है। क्योंकि खाई का मतलब ही बांटना, अलग करना है। श्री रमेश रंजक के एक गीत की पंक्तियां हैं-

घर से घर के बीच कलमुंही गहरी खाई है,
छोटे-छोटे पांव ज़िंदगी लेकर आई है।

असल में बांटने वाली ताकतें आज बहुत अधिक बढ़ गई हैं। मैंने कुछ ताकतों का ज़िक्र पहले भी किया है, एक ताकत जिस पर आज बात करना चाहूंगा वह है आरक्षण। जो पिछड़े हैं उनको आगे बढ़ने का अवसर मिलना चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन यह व्यवस्था ऐसा नहीं कर रही है। एक विशेष सुविधा-भोगी वर्ग पैदा हो गया है, आरक्षण का पात्र माने जाने वाले वर्ग के बीच और आरक्षण की यह सुविधा बार-बार कुछ चुने हुए परिवारों को प्राप्त हो रही है। जो वास्तव में पिछड़े हैं, वे आज भी इस सुविधा से उतने ही दूर हैं, जितना प्रारंभ में थे।
इसके अलावा अब हर कोई यह मांग करने लगा है कि हमारी जाति या समुदाय को आरक्षण का लाभ दिया जाए। फिर इस पर तुर्रा यह कि जो जितना ज्यादा नुकसान करेगा, तोड़-फोड़ करेगा, आगजनी करेगा, सड़कें खोद देगा, उसके बारे में मान लिया जाएगा कि यह कमज़ोर तबका है और कोई राज्य सरकार उसके बारे में कानून पारित कर देगी, भले ही बाद में न्यायालय उसको निरस्त कर दे।
असल में होना यह चाहिए कि जो किसी भी दृष्टि से पिछड़े हैं, उनको तैयारी के लिए, अध्ययन के लिए विशेष सुविधा एवं सहायता दी जाए लेकिन उसके बाद उनको प्रतियोगिता का सामना करना चाहिए, वहाँ कुछ आंशिक छूट दी जा सकती है।
लेकिन ऐसा करेगा कौन? किसी राजनैतिक दल में इतनी हिम्मत है? सीधे-सीधे वोट है इसमें जी! ऐसे कानून इस प्रकार की व्यवस्थाओं के संबंध में बने थे कि इतने वर्ष तक यह व्यवस्था रहेगी, लेकिन लगातार इनको बढ़ाया जाता है और बढ़ाया जाता रहेगा, क्योंकि जिनके लिए यह व्यवस्था है, उनकी स्थिति में न बदलाव आया है न आएगा, बस इतना है कि कुछ सुविधा-भोगी हिस्सा है इन समुदायों का, जिसको इन व्यवस्थाओं का लाभ मिल रहा है और राजनैतिक दलों को वोटों का लाभ मिल रहा है।
है कोई राजनेता जो इस संबंध में कोई निर्णायक फैसला ले सके, जिससे जो वास्तव में पिछड़े हैं उनका भला भी हो और लोगों के बीच में खाइयां बनाने वाली यह वोट दिलाऊ व्यवस्था खत्म हो सके।
नमस्कार।


2 responses to “53. पहाड़ों के क़दों की खाइयां हैं !”

  1. Nice post

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    1. Thanks

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