आजकल काफी पुराने ब्लॉग दोहराता रहा हूँ, लेकिन फिर भी यह 200 वां ब्लॉग आ ही गया, एक यह भी डबल सेंचुरी हुई ना!
कोई भी क्षेत्र हो, हम अक्सर कोई सपना पालकर उसके पीछे चलते जाते हैं। एक गीत की पंक्ति है-‘ एक छलिया आस के पीछे दौड़े तो यहाँ तक आए’ अथवा ‘वो तय कर लेगा मंज़िल, जो एक सपना अपनाए’ । लेकिन कभी-कभी सपने धोखा भी देते हैं!
आज इसी भावभूमि को लेकर सलाम मछलीशहरी जी की एक नज़्म आज याद आ रही है, जिसे जगजीत सिंह जी ने बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया है। एक सपने के पीछे गए और कहीं के न रहे-
बहुत दिनों की बात है
फ़िज़ा को याद भी नहीं
ये बात आज की नहीं
बहुत दिनों की बात है।
शबाब पर बहार थी
फ़िज़ा भी ख़ुशगवार थी
न जाने क्यूँ मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा,
किसी ने मुझ को रोक कर
बड़ी अदा से टोक कर
कहा था लौट आइए
मेरी क़सम न जाइए।
पर मुझे ख़बर न थी
माहौल पर नज़र न थी
न जाने क्यूँ मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा,
मैं शहर से फिर आ गया
ख़याल था कि पा गया
उसे जो मुझसे दूर थी
मगर मेरी ज़रूर थी!
और इक हसीन शाम को
मैं चल पड़ा सलाम को
गली का रंग देख कर
नयी तरंग देख कर
मुझे बड़ी ख़ुशी हुई
मैं कुछ इसी ख़ुशी में था
किसी ने झाँक कर कहा
पराए घर से जाइए
मेरी क़सम न आइए।
वही हसीन शाम है
बहार जिस का नाम है
चला हूँ घर को छोड़ कर
न जाने जाऊँगा किधर
कोई नहीं जो टोक कर
कोई नहीं जो रोक कर
कहे कि लौट आइए
मेरी क़सम न जाइए।
-सलाम मछलीशहरी
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